महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 32 श्लोक 16-25

द्वात्रिंश (32) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: द्वात्रिंश अध्याय: श्लोक 16-25 का हिन्दी अनुवाद


परंतु कुन्तीनन्दन! यह अभीष्ट नहीं है कि दूसरे के द्वारा किये हुए कर्म का फल दूसरे को मिले (काटने वाले का अपराध हथियार बनाने वाले पर थोपा जाय); इसलिये सर्वप्रेरक ईश्वर को ही सारे शुभाशुभ कर्मों का कर्तृत्व सौंप दो।

(2) यदि कहो पुण्य और पाप कर्मों का कर्ता उसे करने वाला पुरुष ही है, दूसरा कोई (ईश्वर) नहीं तो ऐसा मानने पर भी तुमने यह शुभ कर्म ही किया है; क्योंकि तुम्हारे द्वारा पापियों ओर उसके समर्थकों को ही वध हुआ है, इसके सिवा, उनके प्रारब्ध का फल ही उन्हें इस रूप में मिला है तुम तो निमित्त मात्र हो। राजन्! कोई कहीं भी दैव के विधान का उल्लंघन नहीं कर सकता। अतः दण्ड अथवा शस्त्र द्वारा किया हुआ पाप किसी पुरुष को लागू नहीं हो सकता (क्योंकि वे दैवाधीन होकर ही दण्ड या शस्त्र द्वारा मारे गये हैं)।

(3) नरेश्वर! यदि ऐसा मानते हो कि युद्ध करने वाले दो व्यक्तियों में से एक का मरना निश्चित ही है, अर्थात् वह स्वभाववश हठात् मारा गया है, तब तो स्वभाववादी के अनुसार भूत या भविष्य काल में किसी अशुभ कर्म से न तो तुम्हारा सम्पर्क था और न होगा ही।

(4) यदि कहो, लोगों को जो पुध्यफल (सुख) और पापफल (दुःख) प्राप्त होते हैं, उनकी संगति लगानी चाहिये; क्योंकि बिना कारण के तो कोई कार्य हो नहीं सकता; अतः प्रारब्ध ही कर्ता है तो उस कारण भूत प्रारब्ध को धर्माधर्म के रूप में मानना होगा, धर्माधर्म का निर्णय शास्त्र से ही होता है और शास्त्र के अनुसार जगत् में उद्दण्ड मनुष्यों को दण्ड देना राजाओं के लिये सर्वथा युक्तिसंगत है; अतः किसी भी दृष्टि से तुम्हें शोक नहीं करना चाहिये। भारत! नृपश्रेष्ठ यदि कहो कि यह सब मानने पर भी लोक में कर्मों की आवृत्ति होती ही है- लोग कर्म करते और उनके शुभाशुभ फलों को पाते ही हैं- ऐसा मेरा मत है; तो इसके उत्तर में निवेदन है कि इस दशा में भी जिस कर्म के कारण उसके फलरूप से अशुभ की प्रापित होती है, उस पापमूलक कर्म को ही तुम त्याग दो। अपने मन को शोक में न डुबाओ। राजन्! भरतनन्दन! अपना धर्म दोषयुक्त हो तो भी उसमें स्थित रहने वाले तुम जैसे धर्मात्मा नरेश के लिये अपने शरीर का परित्याग करना शोभा की बात नहीं है।

कुन्तीनन्दन! यदि युद्ध आदि में राग द्वेष के कारण निन्द्यकर्म बन गये हों तो शास्त्रों में उन कर्मों के लिये प्रायश्चित्त का भी विधान है। जो अपने शरीर को सुरक्षित रखता है; वह तो पाप निवारण के लिये प्रायश्चित्त कर सकता है; परंतु जिसका शरीर ही नहीं रहेगा, उसे तो प्रायश्चित्त न कर सकने के कारण उन पाप कर्मों के फलस्वरूप पराभाव (दुःख) ही प्राप्त होगा। भरतवंशी नरेश! यदि जीवित रहोगे तो उन कर्मों का प्रायश्चित कर लोगे और यदि प्रायश्चित्त के बिना ही मर गये तो परलोक में तुम्हें संतप्त होना पड़ेगा।


इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासन पर्व में प्रायश्चित्त विधि-विषयक बत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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