महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 328 श्लोक 38-57

अष्टाविंशत्यधिकत्रिशततम (328) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: अष्टाविंशत्यधिकत्रिशततम:अध्याय: श्लोक 38-57 का हिन्दी अनुवाद


मनीषी पुरुष शरीर के भीतर जिसे ‘उदान’ कहते हैं, जो चारों समुद्रों से जल को ऊपर उठाकर जीमूत नामक मेघों में स्थापित करता है तािा जीमूत नामक मेघों को जल से संयुक्त करके उन्हें पर्जन्य के हवाले कर देता है, वह महान् वायु ‘उद्वह’ कहलाता है, जो तृतीय मार्ग पर चलने के कारण तीसरा कहा गया है। ‘जिसके द्वारा इधर-उधर ले जाये गये अनेक प्रकार के महामेघ घट बाँधकर जल बरसाना आरम्भ करते हैं, घटा के रूप में घनीभूत होने पर भी जिसकी प्रेरणा से सारे बादल फट जाते हैं, फिर वे वेणुनाद के समान शब्द करने के कारण ‘नद’ कहलाते हैं तथा प्राणियों की रक्षा के लिये पुनः जल का संग्रह करके घनीभूत हो जाते हैं, जो वायु देवताओं के आकाश मार्ग से जाने वाले विमानों को स्वयं ही वहन करता है, वह पर्वतों का मान मर्दन करने वालर चतुर्थ वायु ‘संवह’ नाम से प्रसिद्ध है। ‘जो रुक्ष भाव से वेगपूर्वक महान् शब्द के साथ बहकर बड़े-बड़े वृक्षों को तोड़ देता है और उखाड़ फेंकता है तािा जिसके क्षरा संगठित हुए प्रलयकालीन मेघ ‘बलाहक’ संज्ञा धारण करते हैं, जिस वायु का संचरण भयानक उत्पात लाने वाला होता है तथा जो आकाश से अपने साथ मेघों की घटायें लिये चलता है, उस अत्यन्त वेगशाली पंचम वायु को ‘विवह’ नाम दिया गया है। ‘जिस वायु के आधार पर आकाश में दिव्य जल ऊपर-ही-ऊपर प्रवाहित होते हैं, जो आकाशगंगा के पवित्र जल को धारण करके स्थित है और जिसके द्वारा दूर से ही प्रतिहत होकर सहस्रों किरणों के उत्पत्ति स्थान सूर्यदेव, जिनसे यह पृथ्वी प्रकाशित होती है, एक ही किरण से युक्त जान पड़ते हैं तथा जिससे अमृत की दिव्य निधि चन्द्रमा का भी पोषण होता है, वह विजयशीलों में श्रेष्ठ छठा वायु तत्त्व ‘परिवह’ नाम से प्रसिद्ध है। ‘जो वायु अन्तकाल में सम्पूर्ण प्राणियों के प्राणों को शरीर से निकालता है, जिसके इस प्राण निष्कासन रूप मार्ग का मृत्यु तथा वैवस्व्त यम अनुगमन मात्र करते हैं, सदा अध्यात्म चिंतन में लगी हुई शानत बुद्धि के द्वारा भलीभाँति अनुसंधान करने वाले तथा ध्यान के अभ्यास में ही सानन्द रत रहने पुरुषों को जो अमृतत्त्वदेने में समर्थ है, जिसमें स्थित होकर प्रजापति दक्ष के दस हजार पुत्र सम्पूर्ण दिशाओं के अन्त में पहुँच गये तथा जिससे स्पर्शित होकर विलीन हुआ प्राणी यहाँ से केवल जाता है वापस नहीं लौटता, उस सर्वश्रेष्ठ सप्तम वायु का नाम ‘परावह’ है। उसका अतिक्रमण करना सभी के लिये सर्वथा कठिन है। ‘इस प्रकार ये सात मरुद्गण दिति के अत्यन्त अद्भुत पुत्र हैं। इनकी सर्वत्र गति है। ये निरन्तर बहते और सबको धारण करते हैं। ‘यह बड़े आश्चर्य कीे बात है कि अत्यन्त वेग से बहते हुए उस वायु के द्वारा यह पर्वतों में श्रेष्ठ हिमालय भी सहसा काँप उठा है। ‘तात! यह भगवान् विष्णु का निःश्वास है। जब कभी सहसा वह निःश्वास वेग से निकल पड़ता है, उस समय यह सारा जगत् व्यथित हो उठता है।‘इसलिये ब्रह्मवेत्ता पुरुष प्रचण्ड वायु (आँधी) चलने पर वेद का पाठ नहीं नहीं करते हैं। वद भी भगवान् का निःश्वास ही है। उस समय वेदपाठ काने पर वायु को वायु से भय प्राप्त होता है और उस वेद को भी पीड़ा होती है’। अनध्याय के विषय में यह बात कहकर पराशरनन्दन भगवान् व्यास अपने पुत्र शुकदेव से बोले- ‘अब तुम वेदपाठ करो।’ यों कहकर वे आकाशगंगा के तट पर चले गये।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्व में अनध्याय के कारण का कथन नामक तीन सौ अट्ठाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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