महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 326 श्लोक 37-51

षड्-विंशत्यधिकत्रिशततम (326) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: षड्-विंशत्यधिकत्रिशततम अध्‍याय: श्लोक 37-51 का हिन्दी अनुवाद


जिस समय मनुष्य निन्दा और स्तुति को समान भाव से समझता है, सोनस-लोहा, सुख-दुःख, सर्दी-गर्मी, अर्थ-अनर्थ, प्रिय-अप्रिय तथा जीवन-मरण में भी उसकी समान दृष्टि हो जाती है, उस समय वह साक्षात् ब्रह्मभाव को प्राप्त हो जाता है।जैसे कछुआ अपने अंगों को फैलाकर फिर समेट लेता है, उसी प्रकार संन्यासी को मन के द्वारा इन्द्रियों पर नियन्त्रण रखना चाहिये। जैसे अन्धकार आच्छादित घर दीपक के प्रकाश से देखा जाता है, उसी प्रकार अज्ञानान्धकार से आवृत हुए आत्मा का विशुद्ध बुद्धि रूपी दीपक के द्वारा साक्षात्कार किया जा सकता है। बुद्धिमानों में रेष्ठ शुकदेव जी! उपर्युक्त सारी बातें मुझे आपके भीतर दिखायी देती हैं। इनके अतिरिक्त भी जो कुछ जानने योग्य तत्त्व है, उसे आप ठीक-ठीक जानते हैं। ब्रह्मर्षे! मैं आपको अच्छी तरह जान गया। आप अपने पिताजी की कृपा और उन्हीं से मिली हुई शिक्षा द्वारा विषयों से परे हो चुके हैं। महामुने! उन्हीं गुरुदेव की कृपा से मुझे भी यह दिव्य ज्ञान प्राप्त हुआ है, जिससे मैं आपकी स्थिति को ठीक-ठीक समझ गया हूँ। आपका विज्ञान, आपकी गति और आपका ऐश्वर्य - ये सभी अधिक हैं; परंतु आपको इस बात का पता नहीं है। बालस्वभाव के कारण, संशय से अथवा मोक्ष न मिलने के काल्पनिक भय से मनुष्य को विज्ञान प्राप्त हो जाने पर भी मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती। मेरे जैसे लोगों के द्वारा जिसका संशय नष्ट हो गया है, वह साधक विशुद्ध निश्चय के द्वारा हृदय की गाँठें खोलकर उस परमगति को प्राप्त कर लेता है। ब्रह्मन्! आपको ज्ञान प्रापत हो चुका है। आपकी बुद्धि भी स्थिर है तथा आपमें विषय लोलुपता का भी सर्वथा अभाव हो गया है, परंतु विशुद्ध निश्चय के बिना कोई परमात्मभाव को नहीं प्राप्त होता है। आप सुख-दुःख में कोई अनतर नहीं समझते। आपके मन में लोभ नहीं है। आपको न तो नाच देखने की उत्कण्ठा होती है और न गीत सुनने की। किसी विषय के प्रति आपके मन में राग नहीं उत्पन्न होता है। महाभाग! न तो भाई-बन्धुओं में आपकी आसक्ति है, न भय दायक पदार्थों से आपको भय हीे होता है। मैं देखता हूँ, आपके लिये मिट्टी के ढेले, पत्थर और सुवर्ण एक से हैं। मैं तथा दूसरे मनीषी पुरुष भी आपको अक्षय एवं अनामय परम मार्ग (मोक्ष) में स्थित मानते हैं। ब्रह्मन्! इस जगत् में ब्राह्मण होने का जो फल है और मोक्ष को जो स्वरूप है, उसी में आपकी स्थिति है। अब और क्या पूछना चाहते हैं ?

इस प्रकार श्रीमहाभारत शानितपर्व के अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्व में शुकोत्पत्तिविषयक तीन सौ छब्बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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