अष्टादशाधिकत्रिशततम (318) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: अष्टादशाधिकत्रिशततम अध्याय: श्लोक 36-50 का हिन्दी अनुवाद
राजन्! उस समय मैंने राजा विश्वावसु से कहा—‘गन्धर्वराज! आपने यहाँ मुझसे जो प्रश्न पूछे हैं, उनका उत्तर सुनिये। गन्धर्वपते! आपने जो विश्वा और अविश्व इत्यादि कहकर यह प्रश्नावली उपस्थित की है, उसमें विश्वा अव्यक्त प्रकृति का नाम है। यह संचार-बन्धन में डालने वाली होने के कारण भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों कालों में भयंकर है— इस बात को आप अच्छी तरह समझ लें। इस प्रकार विश्वा नाम से प्रसिद्ध जो अव्यक्त प्रकृति है, वह त्रिगुण्मयी है; क्योंकि वही त्रिगुणात्मक जगत् को उत्पन्न करने वाली है। उससे भिन्न जो निष्कल (कलाओं से रहित) आत्मा है, वही अविश्व कहलाता है। इसी तरह अश्व और अश्वाकी जोड़ी भी देखी जाती है (अर्थात् अश्वा अव्यक्त प्रकृति और अश्व पुरुष)। अव्यक्त प्रकृति को सगुण बताया गया है और पुरुष को निर्गुण। इसी प्रकार वरुण को प्रकृति समझना चाहिये और मित्र को पुरुष। (भौतिक) ज्ञान शब्द से प्रकृति का प्रतिपादन किया गया है और निष्कल आत्मा को ज्ञेय बताया गया है। इसी तरह अज्ञ प्रकृति है और उससे भिन्न निष्कल पुरुष को ‘ज्ञाता’ बताया गया है। क, तपा ओर अतपा के विषय में जो प्रश्न उपस्थित किया गया है, उसके विषय में बताया जाता है। पुरुष को ही ‘क’ कहते हैं। प्रकृति का ही नाम तपा है और निष्कल पुरुष को अतपा नाम दिया गया है। अव्यक्त प्रकृति को सूर्य और निष्कल पुरुष को अतिसूर्य कहा गया है। प्रकृति को अविद्या जानना चाहिये और पुरुष विद्या कहलाता है। इसी तरह अवेद्य नाम से अव्यक्त प्रकृति का और वेद्य नाम से पुरुष का प्रतिपादन किया जाता है। आपने जो चल और अचल के विषय में प्रश्न किया है, उसका भी उत्तर सुनिये। सृष्टि और संहार की कारण भूता प्रकृति को ‘चला’ कहा गया है और सृष्टि तथा प्रलय का कर्ता पुरुष ही निश्चल पुरुष माना गया है। उसी प्रकार अव्यक्त प्रकृति वेद्य ( जानने में आने वाली) है और पुरुष अवेद्य (जानने में न आने वाला)। अध्यात्मतत्व का निश्चयात्मक ज्ञान रखने वाले विद्वान् कहत हैं कि प्रकृति और पुरुष दोनों ही अज्ञ है, दोनों ही निश्चल हैं और दोनों ही अक्षय, अजन्मा तथा नित्य हैं। ज्ञानी पुरुषों का कथन है कि जन्म ग्रहण करने पर भी क्षयरहित होने के कारण यहाँ पुरुष को अजन्मा, अविनाशी और अक्षय कहा गया है; क्योंकि उसका कभी क्षय नहीं होता है। गुणों का क्षय होने के कारण प्रकृति क्षयशील मानी गयी है और उसका प्रेरक होने के कारण पुरुष को विद्वानों ने अक्षय कहा है। गन्धर्वराज! यह मैंने आपको चौथी आन्वीक्षिकी विद्या, जो मोक्ष में सहायक है, बतायी है। विश्वावसो! आन्वीक्षिकी विद्यासहित वेद-विद्यारूपी धन का उपार्जन करके प्रयत्नपूर्वक नित्यकर्म में संलग्न रहना चाहिये। सभी वेद एकान्तत: स्वाध्याय और मनन करने के योग्य माने गये हैं। गन्धर्वराज! समस्त भूत जिसमें स्थित हैं, जिससे उत्पन्न होते हौर जिस में लीन हो जाते हैं, उस वेद प्रतिपाद्य ज्ञेय परमात्मा को जो नहीं जानते है, वे परमार्थ से भ्रष्ट होकर जन्मते और मरते रहते हैं। सांगोपांग वेद पढ़कर भी जो वेदों के द्वारा जानने के योग्य परमेश्वर को नहीं जानता, वह मूढ़ केवल वेदों का बोझ ढोने वाला है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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