महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 306 श्लोक 31-46

षडधिकत्रिशततम (306) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: षडधिकत्रिशततम अध्याय: श्लोक 31-46 का हिन्दी अनुवाद


जो तत्त्व जिससे उत्‍पन्‍न होता है, वह उसी में लीन भी होता है। अनुलोमक्रम से उन तत्‍वों की उत्‍पत्ति होती है (जैसे प्रकृति से महतत्‍व, महतत्‍व से अंहकार, अहंकार से सूक्ष्‍म भूत आदि के क्रम से सृष्टि होती है); परंतु उनका संहार विलोमक्रम से होता है (अर्थात् पृथ्‍वी का जल में, जल का तेज में और तेज का वायु में लय होता है। इस तरह सभी तत्‍व अपने-अपने कारण में लीन होते हैं)। ये सभी तत्‍व अन्‍तरात्‍मा द्वारा ही रचे जाते हैं । जैसे समुद्र में उठी हुई लहरें फिर उसी में शान्‍त हो जाती हैं, उसी प्रकार सम्‍पूर्ण गुण (तत्‍व) सदा अनुलोमक्रम से उत्‍पन्‍न होते और विलोमक्रम से अपने कारणभूत गुणों (तत्‍व) में ही लीन हो जाते हैं। नृपश्रेष्‍ठ! इतना ही प्रकृति के सर्ग और प्रलय का विषय है। प्रलयकाल में इसका एकत्‍व है और जब रचना होती है, तब इसके बहुत भेद हो जाते हैं। राजेन्‍द्र! ज्ञाननिपुण पुरुषों को इसी प्रकार प्रकृति का एकत्‍व और नानात्‍व जानना चाहिये। अव्‍यक्‍त प्रकृति ही अधिष्‍ठाता पुरुष को सृष्टिकाल में नानात्‍व की ओर ले जाती है। यही पुरुष के एकत्‍व का निदर्शन है। अर्थतत्‍व के ज्ञाता पुरुष को यह जानना चाहिये कि प्रलयकाल में प्रकृति में भी एकता और सृष्टिकाल में अनेकता रहती है। इसी प्रकार पुरुष भी प्रलयकाल में एक ही रहता है; किंतु सृष्टिकाल में प्रकृति का प्रेरक होने के कारण उसमें नानात्‍व का आरोप हो जाता है। परमात्‍मा ही प्रसवात्मिका प्रकृति को नाना रूपों में परिणत करता है। प्रकृति और उसके विकार को क्षेत्र कहते हैं। चौबीस तत्‍वों से भिन्‍न जो पचीसवाँ तत्‍व महान् आत्‍मा है, वह क्षेत्र में अधिष्‍ठातारूप से निवास करता है। राजेन्‍द्र! इसीलिये यतिशिरोमणि उसे अधिष्‍ठाता कहते हैं। क्षेत्रों का अधिष्‍ठान होने के कारण वह अधिष्‍ठाता है, ऐसा हमने सुन रखा है। वह अव्‍यक्‍तसंज्ञक क्षेत्र (प्रकृति) को जानता है, इसलिये क्षेत्रज्ञ कहलाता है और प्राकृत शरीररूपी पुरों में अन्‍तर्यामीरूप से शयन करने के कारण उसे ‘पुरुष’ कहते हैं। वास्‍तव में क्षेत्र अन्‍य वस्‍तु है और क्षेत्रज्ञ अन्‍य। क्षेत्र अव्‍यक्‍त कहा गया है और क्षेत्रज्ञ उसका ज्ञाता पचीसवाँ तत्‍व आत्‍मा है। ज्ञान अन्‍य वस्‍तु है और ज्ञेय उससे भिन्‍न कहा जाता है। ज्ञान अव्‍यक्‍त कहा गया है और ज्ञेय पचीसवाँ तत्‍व आत्‍मा है। अव्‍यक्‍त को क्षेत्र कहा गया है। उसी को सत्त्व (बुद्धि) और शासक की भी संज्ञा दी गयी है; परंतु पचीसवाँ तत्‍व परमपुरुष परमात्‍मा जड तत्‍व और ईश्‍वर से रहित भिन्‍न है। इतना ही सांख्‍यदर्शन है। सांख्‍यके विद्वान् तत्‍वों की संख्‍या (गणना) करते और प्रकृति को ही जगत् का कारण बताते हैं। इसीलिये इस दर्शन का नाम सांख्‍यदर्शन है। सांख्‍यवेत्‍ता पुरुष प्रकृतिसहित चौबीस तत्‍वों की परिगणना करके परमपुरुषो को जड तत्‍वों से भिन्‍न पचीसवाँ निश्चित करते हैं। वह पचीसवाँ प्रकृतिरूप नहीं है। उससे सर्वथा भिन्‍न ज्ञानस्‍वरूप माना गया है। जब वह अपने-आपको प्रकृति से भिन्‍न नित्‍यचिन्‍मय जान लेता है, उस समय केवल हो जाता है अर्थात् अपने विशुद्ध परब्रह्मारूप में स्थित हो जाता है। इस प्रकार मैंने तुमसे यह सम्‍यग्‍दर्शन (सांख्‍य) का यथावत् रूप से वर्णन किया है। जो इसे इस प्रकार जानते हैं, वे शान्‍तस्‍वरूप ब्रह्मा को प्राप्‍त होते हैं। प्रकृति-पुरुषका प्रत्‍यक्ष-दर्शन (अपरोक्ष-अनुभव) ही सम्‍यग्‍दर्शन है। ये जो गुणमय तत्‍व हैं, इनसे भिन्‍न परमपुरुष परमात्‍मा निर्गुण हैं ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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