एकत्रिशततम (301) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: एकत्रिशततम अध्याय श्लोक 75-87 का हिन्दी अनुवाद
भरतनन्दन! कुन्तीकुमार! सूक्ष्म, शीतल, सुगन्धित, सुखस्पर्श एवं सातों वायुओं में श्रेष्ठ जो वायुदेव शुभ लोकों में जाते हैं, वे फिर उन कल्याणमय सांख्ययोगियों को आकाश की ऊँची स्थिति में पहुँचा देते हैं। लोकेश्वर! आकाशभिमानी देवता उन योगियों को रजोगुण की परमागति तक वहन करता है। अर्थात तेजोमय विद्युत-अभिमानी देवताओं के पास पहुँचा देता है। राजेन्द्र! वह रजोगुण अर्थात विद्युदभिमानी देवता उनको सत्य की परम गति तक अर्थात जहाँ श्रीनारायण के पार्षदगण उनको लेने के लिये प्रस्तुत रहते हैं, वहाँ तक वहन करता है। शुद्धात्मन! वहाँ से सत्वगुण युक्त वे भगवान के पार्षद उनको परम प्रभु श्रीनारायण के पास पहुँचा देते हैं। समर्थ राजन! भगवान नारायण स्वयं उनको विशुद्ध आत्मा परब्रह्म परमात्मा में प्रविष्ट कर देते हैं। परमात्मा को पाकर तद्रूप हुए वे निर्मल योगी जन अमृतभावसम्पन्न हो जाते हैं, फिर नहीं लौटते। कुन्तीकुमार! जो सब प्रकार के द्वन्द्वों से रहित, सत्यवादी, सरल तथा सम्पूर्ण प्राणियों पर दया करने वाले हैं, उन महात्माओं को वही परमगति मिलती है। युधिष्ठिर ने पूछा- निष्पाप पितामह! स्थिरतापूर्वक श्रेष्ठ व्रत का पालन करने वाले वे सांख्ययोगी महात्मा भगवान नारायण को एवं उत्तम परमात्मपद (मोक्ष) को प्राप्त कर लेने पर अपने जन्म से लेकर मृत्यु तक के बीते हुए वृतान्त को फिर कभी याद करते हैं या नहीं ? (मोक्षावस्था में विशेष-विशेष बातों का ज्ञान रहता है या नहीं ? यही मेरा प्रश्न है। ) इस विषय में जो तथ्य बात है, उसे आप यथार्थरूप से बताने की कृपा करें। कुरुनन्दन! आपके सिवा दूसरे किसी पुरुष से मैं ऐसा प्रश्न नही कर सकता। सिद्धावस्था को प्राप्त ऋषियों के लिये मोक्ष में यह एक बड़ा दोष प्रतीत होता है। वह यह कि यदि मोक्ष प्राप्त होने पर भी वे यतिलोग विशेष ज्ञान में ही विचरण करते हैं अर्थात उनको पहले की स्मृति रहती है, तब तो मैं प्रवृति रूप धर्म को ही सर्वश्रेष्ठ समझता हूँ। यदि कहें, मुक्तावस्था में विशेष विज्ञान का अनुभव नहीं होता तब तो उस परम ज्ञान में डूब जाने पर विशेष जानकारी का अभाव हो जाता है, इससे बढकर दुख और क्या हो सकता है ? भीष्म जी ने कहा- तात! भरतश्रेष्ठ! तुमने यथोचित रीति से यह बहुत ही जटिल प्रश्न उपस्थित किया। इस प्रश्न पर विचार करते समय बड़े-बड़े विद्वान भी मोहित हो जाते हैं। इस विषय में भी जो परम तत्व है, उसे मैं भलीभाँति बता रहा हूँ सुनों। यहाँ कपिल जी के द्वारा प्रतिपादित सांख्यमत का अनुसरण करने वाले महात्मा पुरुषों का जो उत्तम विचार है वही प्रस्तुत किया जाता है। नरेश्वर! देहधारियो के अपने -अपने शरीर में जो इन्द्रियाँ हैं, वे ही विशेष-विशेष विषयों को देखती या अनुभव करती हैं, वे ही आत्मा को विभिन्न ज्ञान कराने में कारण हैं; क्योंकि वह सूक्ष्म आत्मा उन इन्द्रियों द्वारा ही बाह्य विषयों को दर्शन या प्रकाशन करता है (मुक्तावस्था में मन और इन्द्रियों से संबंध न रहने के कारण ही उसमें इन्द्रियजनित विशेष ज्ञान का अभाव देखा जाता है।)। जैसे महासागर में उठे हुए फेन नष्ट हो जाते हैं, उसी प्रकार जीवात्मा से परित्यक्त होने पर मनुष्य की काठ और दीवार की भाँति जड़ इन्द्रियां प्रकृति में विलीन हो जाती हैं, इसमें संदेह नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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