महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 301 श्लोक 38-55

एकत्रिशततम (301) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: एकत्रिशततम अध्याय श्लोक 38-55 का हिन्दी अनुवाद

संसार के प्राणी एक-दूसरे को खा जाते हैं, यह कैसी अशुभ घटना है। इस पर दृष्टिपात करो। बाल्‍यावस्‍था में मन पर मोह छाया रहता है और वृद्धावस्‍था में शरीर का अमंगलकारी विनाश उपस्थित होता है। राग और मोह प्राप्‍त होने पर अनेक दोष उत्‍पन्‍न होते हैं, इन सबको जानकर कहीं किसी-किसी को ही सत्‍वगुण से युक्‍त देखा जाता है। सहस्‍त्रों मनुष्‍यों में से कोई बिरला ही मोक्षविषयक बुद्धि का आश्रय लेता है। वेद-वाक्‍यों के श्रवण द्वारा मुक्ति की दुर्लभता को जानकर अभीष्‍ट वस्‍तु की प्राप्ति न होने पर भी उस परिस्थिति के प्रति अधिक आदर-बुद्धि रखे और मनोंवांछित वस्‍तु प्राप्‍त हो जाय, तो भी उसकी ओर से उदासीन ही रहे। नरेश्‍वर! शब्‍द-स्‍पर्श आदि विषय दुखरूप ही हैं, इस बात को जाने। कुन्‍तीनन्‍दन! जिनके प्राण चले जाते हैं, उन मनुष्‍यों के शरीरों की जो अशुभ एवं वीभत्‍स दशा होती है, उस पर भी दृष्टिपात करे। भरतनन्‍दन! प्राणियों का घरों में निवास करना भी दुखरूप ही है, इस बात को अच्‍छी तरह समझे तथा ब्रह्मघाती और पतित मनुष्‍यों की जो अत्‍यन्‍त भयंकर दुर्गति होती है, उसको भी जाने। मदिरापान में आसक्‍त दुरात्‍मा ब्राह्मणों की तथा गुरु पत्‍नीगामी मनुष्‍यों की जो अशुभ गति होती है, उसका भी विचार करे।

युधिष्ठिर! जो मनुष्‍य माताओं, देवताओं तथा सम्‍पूर्ण लोकों के प्रति उत्‍तम बर्ताव नहीं करते हैं, उनकी दुर्गति का ज्ञान जिससे होता है, उसी ज्ञान से पापाचारी पुरुषों की अधोगति का ज्ञान प्राप्‍त करे तथा तिर्यग्‍योनि में पड़े हुए प्राणियों की जो विभिन्‍न गतियाँ होती हैं, उनको भी जान लो। वेदों के भाँति-भाँति के विचित्र वचन, ॠतुओं के परिवर्तन तथा दिन, पक्ष, मास और संवत्‍सर आदि काल जो प्रतिक्षण बीत रहा है, उसकी ओर भी ध्‍यान दे। चन्‍द्रमा की ह्रासवृद्धि तो प्रत्‍यक्ष दिखायी देती है। समुद्रों का ज्‍वारभाटा भी प्रत्‍यक्ष ही है। धनवानों के धनका नाश और नाश के बाद पुन: वृद्धि का क्रम भी दृष्टिगोचर होता ही रहता है। इन सबको देखकर अपने कर्तव्‍य का निश्‍चय करें। संयोग का, युगों का, पर्वतों का और सरिताओं का जो क्षय होता है, उस पर दृष्टि डालें। जन्‍म, मृत्‍यु और जरावस्‍था के दुखों पर दृष्टिपात करें। देह के दोषों को जानकर उनसे मिलने वाले दुख का भी यथार्थ ज्ञान प्राप्‍त करे। शरीर की व्‍याकुलता को भी ठीक-ठीक जानने का प्रयत्‍न करें। अपने शरीर में स्थित जो अपने ही दोष हैं, उन सबको जानकर शरीर से जो निरन्‍तर दुर्गन्‍ध उठती रहती है, उसकी ओर भी ध्‍यान दें (तथा विरक्‍त होकर परमात्‍मा का चिन्‍तन करते हुए भवबन्‍धन से मुक्‍त होने का प्रयत्‍न करें )।

युधिष्ठिर ने पूछा- अमितपराक्रमी पितामह! आपके देखने में कौन-कौन-से दोष ऐसे हैं जो अपने ही शरीर से उत्‍पन्‍न होते हैं? आप मेरे इस सम्‍पूर्ण संदेह का यथार्थरूप से समाधान करने की कृपा करें। भीष्‍म जी ने कहा- प्रभो! शत्रुसदन! कपिल सांख्‍यमत के अनुसार चलने वाले उत्‍तम मार्गों के ज्ञाता मनीषी पुरुष इस देह के भीतर पांच दोष बतलाते हैं, उन्‍हें बताता हूँ, सुनों। काम, क्रोध, भय, निद्रा और श्‍वास- ये पांच दोष समस्‍त देहधारियों के शरीर में देखे जाते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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