सप्तनवत्यधिकद्विशततम (297) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: सप्तनवत्यधिकद्विशततम अध्याय श्लोक 13-27 का हिन्दी अनुवाद
इनकी उस अवस्था के प्राप्त होने में आत्महत्या रूप पाप के सिवा दूसरा कोई कारण नहीं है। उन प्राणियों के उस शरीर का मिलना उचित ही है, जो कि पंचभूतमय है। यह शरीर नस, नाड़ी और हड्डियों का समूह है। घृणित और अपवित्र मल-मूत्र आदि से भरा हुआ है। पंचमहाभूतों, श्रोत्र आदि इन्द्रियों तथा गुणों (वासनामय विषयों) का समुदाय है। अध्यात्म तत्व का चिन्तन करने वाले ज्ञानी पुरुष कहते हैं कि इस शरीर के अन्त में अर्थात बाह्यभाग में त्वचा (चमड़ा) मात्र है। यह सौन्दर्य आदि गुणों से भी रहित है। इसकी मृत्यु अनिवार्य है। जब जीवात्मा इस देह का परित्याग कर देता है, तब यह देह निश्चेष्ट और चेतनाशून्य हो जाती है एवं इसके पाँच भूत अपनी-अपनी प्रकृति के साथ मिल जाते हैं। फिर तो यह पृथ्वी में निमग्न हो जाती है। विदेहराज! यह शरीर जिस किसी स्थान में मृत्यु को प्राप्त हो जाता है; फिर प्रारब्ध कर्म के योग से भावित होकर जहाँ-कहीं भी जन्म ले लेता है। कर्मों का फलस्वरूप यह स्वभाव सिद्ध पुनर्जन्म देखा गया है। नरेश्वर! जैसे विशाल मेघ आकाश में सब और भ्रमण करता है, उसी प्रकार जीवात्मा प्रारब्ध-कर्म के फल से कुछ काल तक घूमता रहता है, जन्म नहीं लेता है। राजन्! वही यहाँ फिर कोई आधार पाकर पुन: जन्म लेता है। मन से आत्मा श्रेष्ठ है और इन्द्रियों से मन श्रेष्ठ है। महाराज! संसार के विविध प्राणियों में चलने-फिरने वाले जीव श्रेष्ठ माने गये हैं। इस जंगम प्राणियों में भी दो पैर वाले जीव (मनुष्य) श्रेष्ठ कहे गये हैं। मनुष्यों में भी द्विज श्रेष्ठ कहे गये हैं। राजेन्द्र! द्विजों में बुद्धिमान और बुद्धिमानों में भी आत्मज्ञानी श्रेष्ठ समझे जाते हैं। उनमें भी जो अहंकाररहित हैं, उन्हें सर्वश्रेष्ठ माना गया है। जन्म के साथ ही मृत्यु मनुष्यों के पीछे लगी रहती है। यह विद्वानों का निश्चय है। समस्त प्रजासत्त्व आदि गुणों से प्रेरित होकर विनाशशील कर्मों का आचरण करती है। राजन्! जो सूर्य के उत्तरायण होने पर उत्तम नक्षत्र और पवित्र मुहूर्त में मृत्यु को प्राप्त होता है, वह पुण्यात्मा है। वह किसी को भी कष्ट न देकर प्रायश्चित के द्वारा अपने पाप को नष्ट कर डालता है और अपनी शक्ति के अनुसार शुभ कर्म करके स्वेच्छा से मृत्यु को अंगीकार करता है। किंतु विष खा लेने से, गले में फाँसी लगाने से, आग में जलने से, लुटेरों के हाथ से तथा दाढ़ वाले पशुओं के आघात से जो वध होता है, वह अधम श्रेणी का माना जाता है। पुण्यकर्म करने वाले मनुष्य इस तरह के उपायों से प्राण नहीं देते तथा ऐसे-ऐसे दूसरे अधम उपायों से भी उनकी मृत्यु नहीं होती। राजन्! पुण्यात्मा पुरुषों के प्राण ब्रह्मरन्ध्र को भेदकर निकलते हैं। जिनके पुण्यकर्म मध्यम श्रेणी के हैं, उनके प्राण मध्यद्वार (मुख, नेत्र आदि) से बाहर होते हैं तथा जिन्होंने केवल पाप ही किया है, उनके प्राण नीचे के छिद्र (गुदा या शिश्न द्वार) से निकलते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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