महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 287 श्लोक 49-59

सप्‍ताशीत्‍यधिकद्विशततम (287) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: सप्‍ताशीत्‍यधिकद्विशततम अध्याय श्लोक 49-59 का हिन्दी अनुवाद


जहाँ राजा और राजा के निकटवर्ती अन्‍य पुरुष कुटुम्बी-जनों से पहले ही भोजन कर लेते हैं, उस राष्ट्र को मनस्‍वी पुरुष अवश्‍य त्याग दे। जिस देश में सदा धर्मपरायण, यज्ञ कराने और पढ़ाने के कार्य में संलग्‍न सनातनधर्मी श्रो‍त्रिय ब्राह्मण ही सबसे पहले भोजन पाते हों, उस राष्ट्र में अवश्‍य निवास करें। जहाँ स्‍वाहा (अग्निहोत्र), स्‍वधा (श्राद्धकर्म) तथा वषट्कार का भली-भाँति अनुष्ठान होता हो और निरन्‍तर ये सभी कर्म किये जाते हों, वहाँ बिना विचारे ही निवास करना चाहिये। जहाँ ब्राह्मणों को जीविका के लिये कष्ट पाते तथा अपवित्र अवस्‍था में रहते देखे, उस राष्ट्र को निकटवर्ती होने पर भी विषमिश्रित भोग्‍यवस्‍तु की भाँति त्याग दें। जहाँ के लोग प्रसन्‍नतापूर्वक बिना माँगे ही भिक्षा देते हों, वहाँ मन को वश में क‍रने वाला पुरुष कृतकृत्य की भाँति स्‍वस्‍थचित्त होकर निवास करें।

जहाँ उद्दण्ड पुरुषों को दण्ड दिया जाता हो और जितात्मा पुरुषों का सत्कार किया जाता हो, वहाँ पुण्यशील श्रेष्ठ पुरुषों के बीच विचरना और निवास करना चाहिये। जो जितेन्द्रिय पुरुषों पर क्रोध और श्रेष्ठ पुरुषों पर अत्याचार करते हों, उद्दण्ड और लोभी हों, ऐसे लोगों को जहाँ अत्यन्‍त कठोर और महान दण्ड दिया जाता हो, उस देश में बिना विचारे निवास करना चाहिये। जहाँ राजा सदा धर्मपरायण रहकर धर्मानुसार ही राज्‍य का पालन करता हो और सम्पूर्ण कामनाओं का स्‍वामी होकर भी विषयभोग से विमुख रहता हो, वहाँ बिना कुछ सोचे-विचारे निवास करना चाहिये। क्‍योंकि राजा के शील-स्‍वभाव जैसे होते हैं वैसे ही प्रजा के भी हो जाते हैं।

वह अपने कल्याण का अवसर उपस्थित होने पर प्रजा को भी शीघ्र ही कल्याण का भागी बना देता है। तात! मैंने तुम्हारे प्रश्‍न के अनुसार यह श्रेयोमार्ग का वर्णन किया है। पूर्णतया तो आत्मकल्याण की परिगणना हो ही नहीं सकती। जो इस प्रकार की वृति से रहकर जीविका चलाता है और प्राणियों के हित में मन लगाये रहता है, उस पुरुष को स्‍वधर्मरूप तप के अनुष्ठान से इस लोक में ही परमकल्याण की प्रत्यक्ष उप‍लब्धि हो जायेगी।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्‍‍तर्गत मोक्षधर्मपर्व में श्रेयोमार्ग का प्रतिपादन नामक दो सौ सतासीवाँ अध्‍याय पूरा हुआ ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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