षडशीत्यधिकद्विशततम (286) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: षडशीत्यधिकद्विशततम अध्याय श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद
युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह! संसार के सभी प्राणी सदा शोक, दु:ख और मृत्यु से डरते रहते हैं; अत: आप हमें ऐसा उपदेश दें, जिससे हम लोगों को उन दोनों का भय न रहे। भीष्म जी ने कहा- भरतनन्दन! इस विषय में विद्वान पुरुष देवर्षि नारद और समंग के संवाद रूप प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं। नारद जी ने पूछा- संमग जी! दूसरे लोग तो सिर झुकाकर प्रणाम करते हैं; परंतु आप हृदय से प्रणाम करते जान पड़ते हैं। मालूम होता है, आप इस संसार सागर को अपनी इन दोनों भुजाओं से ही तैरकर पार हो जायेंगे। आपका मन नित्य प्रसन्न रहता है तथा आप सदा शोकशून्य-से दिखायी देते हैं। मैं आपके चित्त में कभी कोई थोड़ा-सा भी उद्वेग नहीं देख पाता हूँ। आप नित्य तृप्त की भाँति अपने-आपमें ही स्थित रहकर बालकों के समान चेष्टा करते हैं (इसका क्या कारण है?) समंग जी ने कहा- दूसरों को मान देने वाले देवर्षे! मैं भूत, वर्तमान और भविष्य इन सबका स्वरूप तथा तत्त्व जानता हूँ; इसलिये मेरे मन में कभी विषाद नहीं होता है। मुझे कर्मों के आरम्भ का तथा उनके फलोदयकाल का भी ज्ञान है और लोक में जो भाँति-भाँति के कर्मफल प्राप्त होते हैं, उनको भी मैं जानता हूँ; इसीलिये मेरे मन में कभी खेद नहीं होता। नारद जी! देखिये, जैसे जगत में गम्भीर, अप्रतिष्ठित, प्रगतिशील, अन्धे और जड़ मनुष्य भी जीवित रहते हैं, उसी प्रकार हम भी जी रहे हैं। नीरोग शरीर वाले देवता, बलवान और निर्बल सभी अपने प्रारब्ध-विधान के अनुसार जीवन धारण करते हैं; अत: हम भी प्रारब्ध पर ही अवलम्बित रहकर किसी कर्म का आरम्भ करते हैं, इसलिये हमारे प्रति भी आप आदर बुद्धि रखें (अकर्मण्य समझकर हमारा निरादर न करें)। जिनके पास हजायें रूपये हैं, वे भी जीते है। जिनके पास सैकड़ों रूपयों का संग्रह है, वे भी जीवन धारण करते हैं। दूसरे लोग साग से ही जीवन-निर्वाह करते हैं। उसी तरह हमें भी जीवित समझिये। नारद जी! जब अज्ञान दूर हो जाने के कारण हम शोक ही नहीं करते हैं तो धर्म अथवा लौकिक कर्म से हमारा क्या प्रयोजन है। सारे सुख और दुख काल के अधीन होने के कारण क्षणभंगुर हैं, अत: वे ज्ञानी पुरुष को पराभूत नहीं कर सकते हैं। ज्ञानी पुरुष जिसके लिये कहा करते हैं, उस प्रज्ञा की जड़ है इन्द्रियों की निर्मलता। जिसकी इन्द्रियाँ मोह और शोक में मग्न हैं, उस मोहाच्छन्न इन्द्रिय वाले पुरुष को कभी प्रज्ञा का लाभ नहीं मिल सकता। मूढ़ मनुष्य को गर्व होता है। उसका वह गर्व मोहरूप ही है। मूढ़ के लिये न तो यह लोक सुखद होता है और न परलोक ही। किसी को भी न तो सदा दु:ख ही उठाने पड़ते हैं और न नित्य निरन्तर सुख का ही लाभ होता है। संसार के स्वरूप को परिवर्तित होता देख मेरे-जैसा मनुष्य कभी संताप नहीं करता है। अभीष्ट भोग अथवा सुख का भी अनुसरण नहीं करता तथा दु:ख आ जाय तो उसके लिये चिन्तित नहीं होता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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