त्र्यशीत्यधिकद्विशततम (283) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: त्र्यशीत्यधिकद्विशततम अध्याय श्लोक 21-39 का हिन्दी अनुवाद
वे महामनस्वी देवता सूर्य और अग्नि के समान तेजस्वी विमानों पर बैठकर महादेव जीकी आज्ञा ले गंगाद्वार (हरिद्वार) को गये- यह बात हमारे सुनने में आयी है। देवताओं को प्रस्थित देख सती साध्वी गिरिराज नन्दिनी उमा ने अपने स्वामी पशुपति महादेवजी से पूछा - ' भगवान ! ये इन्द्र आदि देवता कहाँ जा रहे हैं ? तत्वज्ञ परमेश्वर! ठीक-ठीक बताइये। मेरे मन में यह महान संशय उत्पन्न हुआ है '। महेश्वर ने कहा - महाभागे! श्रेष्ठ प्रजापति दक्ष अश्वमेघ यज्ञ करते हैं; उसी में ये सब देवता जा रहे हैं। ऊमा बोली - महादेव! इस यज्ञ में आप क्यों नहीं पधार रहे हैं ? किस प्रतिबन्ध के कारण आपका वहाँ जाना नहीं हो रहा है ? महेश्वर ने कहा - महाभागे! देवताओं ने ही पहले ऐसा निश्चय किया था। उन्होंने सभी यज्ञों में से किसी में भी मेरे लिये भाग नियत नहीं किया। सुन्दरि! पूर्वनिश्चित नियम के अनुसार धर्म की दृष्टि से ही देवतालोग यज्ञ में मुझे भाग नहीं अर्पित करते हैं। ऊमा ने कहा - भगवन्! आप समस्त प्राणियों में सबसे अधिक प्रभावशाली, गुणवान, अजेय, अधृष्य, तेजस्वी, यशस्वी तथा श्रीसम्पन्न हैं। महाभाग! यज्ञ में जो इस प्रकार आपको भाग देने का निषेध किया गया है, इससे मुझे बड़ा दु:ख हुआ है। अनघ! इस अपमान से मेरा सारा शरीर काँप रहा है। भीष्म जी कहते हैं - राजन्! अपने पति भगवान पशुपति से ऐसा कहकर पार्वती देवी चुप हो गयीं, परंतु उनका हृदय शोक से दग्ध हो रहा था। पार्वती देवी के मन में क्या है और वे क्या करना चाहती हैं, इस बात को जानकर महादेवजी ने नन्दी को आज्ञा दी कि तुम यहीं खड़े रहो। तदनन्तर सम्पूर्ण योगेश्वरों के भी ईश्वर महातेजस्वी देवाधिदेव पिनाकधारी शिव ने योगबल का आश्रय ले अपने भयानक सेवकों द्वारा उस यज्ञ को सहसा नष्ट करा दिया। राजन्! भगवान शिव के अनुचरों में से कोई तो जोर-जोर से सिंहनाद करने लगे, किन्हीं ने अट्टहास करना आरम्भ कर दिया तथा दूसरे यज्ञाग्नि को बुझाने के लिये उस पर रक्त की वर्षा करने लगे। कोई विकराल मुखवाले पार्षद यज्ञ के यूपों को उखाड़कर वहाँ चारो ओर चक्कर लगाने लगे। दूसरों ने यज्ञ के परिचारकों को अपने मुख का ग्रास बना लिया। नरेश्वर! इस प्रकार जब सब ओर से आघात होने लगा, तब वह यज्ञ मृग का रूप धारण करके आकाश की ओर ही भाग चला। यज्ञ को मृग का रूप धारण करके भागते देख भगवान शिव ने धनुष हाथ में लेकर बाण के द्वारा उसका पीछा किया। तत्पश्चात् अमिततेजस्वी देवेश्वर महादेवजी के क्रोध के कारण उनके ललाट से भयंकर पसीने की बूँद प्रकट हुई। उस पसीने के बिन्दु के पृथ्वी पर पड़ते ही कालाग्नि के समान विशाल अग्नि पुंज का प्रादुर्भाव हुआ। पुरुषप्रवर! उस समय उस आग से एक नाटा-सा पुरुष उत्पन्न हुआ, जिसकी आँखे बहुत ही लाल थीं। दाढी और मूँछ के बाल भूरे रंग के थे। वह देखने में बड़ा डरावना जान पड़ता था । |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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