महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 280 श्लोक 31-37

अशीत्यधिकद्विशततम (280) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: अशीत्यधिकद्विशततम अध्याय श्लोक 31-37 का हिन्दी अनुवाद

‘कितने ही जीव करोड़ों कल्पों तक स्थावररूप से एक स्थान में स्थित रहते हैं और कितने ही उतने समय तक इधर-उधर विचरते रहते हैं। दैत्‍यप्रवर! प्रजा के सृष्टि का परिमाण कई हजार बावड़ियों की संख्या के समान है। ‘वे सारी बावड़ियाँ पाँच सौ योजन चौड़ी, पाँच सौ योजन लंबी और एक-एक कोस गहरी हों। गहराई इतनी हो कि कोई उनमें प्रवेश न कर सके। तात्पर्य यह कि प्रत्येक बावड़ी बहुत लंबी-चौड़ी और गहरी हो- उनमें से एक बावड़ी के जल को कोई दिन भर में एक ही बार एक बाल की नोक से उलीचे, दूसरी बार न उलीचे। इस प्रकार उलीचने से उन सारी बावडि़यों का जल जितने समय में समाप्त हो सकता है, उतने ही समय में प्राणियों की सृष्टि और संहारके क्रमकी समाप्ति हो सकती है (अर्थात् जैसे उक्त प्रकार से उलीचने पर उन बावड़ियों का जल सूखना असम्भव है, वैसे ही बिना ज्ञान के संसार का उच्छेद होना असम्भव है।)

‘प्राणियों के वर्ण छः प्रकार के हैं- कृष्ण, धूम्र, नील, रक्त, हरिद्रा (पीला) और शुक्ल[1] इनमें से कृष्ण, धूम्र और नील वर्ण का सुख मध्यम होता है। रक्तवर्ण विशेष रूप से सहन करने योग्य होता है। हरिद्रकी-सी कान्ति सुख देने वाली होती है और शुक्लवर्ण अत्यन्त सुखदायक होता है। ‘दानवराज! शुक्लवर्ण निर्मल, शोकहीन, परिश्रम-शून्य होने के कारण सिद्धि कारक होता है। दितिकुलनन्दन! जीव सहस्रों योनियों में जन्म ग्रहण करने के बाद मनुष्य योनि में आकर कभी सिद्धि लाभ करता है। ‘असुरेन्द्र! देवराज इन्द्र ने मंगलमय तत्त्व ज्ञान प्राप्त करके हमारे निकट जिस गति और दर्शन-शास्त्र का वर्णन किया है, वह प्राणियों की वर्णजनित गति है अर्थात् शुक्लवर्ण वालों को वही सिद्धि प्राप्त होती है। वह वर्ण कालकृत माना गया है। ‘दैत्यप्रवर! इस जगत् में समस्त जीवन-समुदाय की परागति चौदह लाख बतायी गयी है।

(पाँच कर्मेन्द्रिय, पाँच ज्ञानेन्द्रिय तथा मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार- ये चौदह करण हैं। इन्हीं के भेद से चौदह प्रकार की गति होती है। फिर विषय भेद से वृत्ति भेद होने के कारण चौदह लाख प्रकार की गति होती है।) जीव का जो ऊर्ध्‍व लोकों में गमन होता है, वह भी उन्हीं चौदह करणों द्वारा सम्पादित होता है। विभिन्न स्थानों में जो स्थिरतापूर्वक निवास है, वह और उन स्थानों से जो उन जीवों का अधःपतन होता है, वह भी उन्हीं के सम्बन्ध से होता है। इस बात को तुम अच्छी तरह जान लो (अतः इन चौदह करणों को सात्त्विक मार्गाभिमुखी बनाना चाहिए) ‘कृष्ण वर्ण की गति नीच बतायी गयी है। वह नरक प्रदान करने वाले निषिद्ध कर्मों में आसक्त होता है, इसीलिए नरक की आग में पकाया जाता है। वह कुमार्ग में प्रवृत हुए पूर्वोक्त चौदह करणों द्वारा पापाचार करने के कारण अनेक कल्पों तक नरक में ही निवास करता है- ऐसा ऋषि-मुनि कहते हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. जब तमोगुण की अधिकता, सत्त्वगुण की न्यूनता और रजोगुण की सम अवस्था हो, तब कृष्‍ण वर्ण होता है। यह स्थावर सृष्टि का रंग माना गया है। तमोगुण की अधिकता, रजोगुण की न्यूनता और सत्त्वगुण की सम अवस्था होने पर धूम्रवर्ण होता है। यह पशु-पक्षी की योनि में जन्म लेने वाले प्राणियों का वर्ण माना गया है। रजोगुण की अधिकता, सत्त्वगुण की न्यूनता और तमोगुण की सम अवस्था होने पर नीलवर्ण होता है। यह मानवसर्ग का वर्ण बताया गया है। इसी में जब सत्त्वगुण की सम अवस्था और तमोगुण की न्यूनावस्था हो तो मध्यम वर्ण होता है। उसका रंग लाल होता है। इसे अनुग्रह सर्ग कहते हैं। जब सत्त्वगुण की अधिकता, रजोगुण की न्यूनता और तमोगुण की सम अवस्था हो तो हरिद्रा के समान पीतवर्ण होता है। यही देवताओं का वर्ण है, अतः इसे देवसर्ग कहते हैं। उसी में जब रजोगुण की सम अवस्था और तमोगुण की न्यूनता हो तो शुक्लवर्ण होता है। इसी को कौमारसर्ग कहा गया है।

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