महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 277 श्लोक 13-25

सप्‍तसप्‍तत्‍यधिकद्विशततम (277) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: सप्‍तसप्‍तत्‍यधिकद्विशततम अध्याय श्लोक 13-25 का हिन्दी अनुवाद

इसलिये जिस काम को कल करना हो, उसे आज ही कर लें। जिसे अपराहण में करना हो, उसे पूर्वाहण में ही कर डालें; क्‍योंकि मृत्‍यु इस बात की प्रतीक्षा नहीं करती कि इसका काम पूरा हो गया या नहीं। जो कल्‍याणकारी कार्य है, उसे आप आज ही कर डालिये। यह महान् काल आपको लाँघ न जाय; क्‍योंकि कौन जानता है कि आज किसकी मृत्‍यु की घड़ी आ पहुँचेगी। सारे काम अधूरे ही रह जाते हैं और मौत अपनी ओर खींच लेती है, इसलिये युवावस्‍था में ही मनुष्‍य को धर्म का आचरण करना चाहिये, क्‍योंकि जीवन का कुछ ठिकाना नहीं है। धर्माचरण करने से इस लोक में प्रसन्‍नता प्राप्‍त होती है और मृत्‍यु के पश्‍चात परलोक में अक्षय सुख की प्राप्ति होती है। जिस पर मोह का आवेश होता है, वही स्त्री-पुत्रों के लिये तरह-तरह के काम-धंधों की खटपट में लगा रहता है। वह करने और न करने योग्‍य काम करके भी इन सबको संतोष देता है। पुत्रों और पशुओं से सम्‍पन्‍न हो जब मनुष्‍य का मन उन्‍हीं में आसक्‍त रहता है, उसी समय जैसे नदी का महान् जलप्रवाह अपने तट पर सोये हुए व्‍याघ्र को बहा ले जाता है, उसी प्रकार मृत्‍यु उस मनुष्‍य को लेकर चल देती है। वह भोग-सामग्रियों का संयम करता और कामनाओं से अतृप्‍त ही रहता है।

तभी मृत्‍यु आकर उसे उसी तरह उठा ले जाती है, जैसे बाघिन भेड़ के पास पहुँचकर उसे दबोच लेती है। मनुष्‍य सोचता है कि यह काम तो मैंने कर लिया, इस काम को अभी करना है और यह दूसरा कार्य कुछ हद तक हो गया है और शेष बाकी पड़ा है। इस प्रकार मनसूबे बाँधने में लगे हुए उस मनुष्‍य को मौत लेकर चल देती है। वह अपने खेत, दुकान और घर के ही चक्‍कर में पड़ा रहता है। उनके लिये तरह-तरह के कर्मों में फँसता है; परंतु उनका फल मिलने भी नहीं पाता कि मौत उसको इस संसार से उठा ले जाती है। मनुष्‍य दुर्बल हो या बलवान, बुद्धिमान हो या शूरवीर अथवा मूर्ख हो या विद्वान-मृत्‍यु उसकी समस्‍त कामनाओं के पूर्ण होने से पहले ही उसे उठा ले जाती है। पिता जी! जब इस शरीर में मृत्‍यु, जरा, व्‍याधि और अनेक कारणों से होने वाले दु:खों का ताँता बँधा ही रहता है और मनुष्‍य किसी प्रकार भी उनसे अपना पिण्‍ड नही छुड़ा सकते, तब ऐसी दशा में आप निश्चिन्‍त से क्‍यों बैठे है? मनुष्‍य के जन्‍म लेते ही उसका अन्‍त कर डालने के लिये अन्‍तक (यमराज) उसके पीछे लग जाता है और बुढ़ापा भी देहधारी के पास आता ही है। समस्‍त चराचर पदार्थ इन दोनों से बँधे हुए हैं। एकमात्र सत्‍य के बिना कोई भी मनुष्‍य कभी सामने आती हुई मृत्‍यु की सेना को बलपूर्वक नहीं दबा सकता (अत: असत्‍य को त्‍यागकर सत्‍य का ही आश्रय लेना चाहिये) क्‍योंकि सत्‍य में ही अमृत (ब्रह्म) प्रतिष्ठित है। गाँव या नगर में रहकर स्त्री-पुत्रों में आसक्ति रखना यह मृत्‍यु का घर ही है। 'यदरण्‍यम्' इस श्रुति के अनुसार जो वानप्रस्‍थ आश्रम है, यह देवताओं की गोशाला के समान है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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