सप्तत्यधिकद्विशततम (270) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: सप्तत्यधिकद्विशततम अध्याय श्लोक 28-40 अध्याय: का हिन्दी अनुवाद
इस मार्ग से जाने वाले सभी पथिकों का परम कल्याण होता है; परंतु जो दुर्बल है- मन और इन्द्रियों को वश में न रखने के कारण जो इसके साधन में असमर्थ है, वही यहाँ शिथिल होकर बैठा रहता है। जो बाहर और भीतर से पवित्र है, वह ब्रह्मपद का अनुसंधान करता हुआ संसार-बन्धन से मुक्त हो जाता है। स्यूमरश्मि ने पूछा- ब्रह्मन्! जो लोग प्राप्त हुए धन के द्वारा केवल भोग भोगते हैं, जो दान करते हैं, जो उस धन को यज्ञ में लगाते हैं, जो स्वाध्याय करते हैं अथवा जो त्याग का आश्रय लेते हैं, इनमें से कौन पुरुष मृत्यु के पश्चात प्रधानरूप से स्वर्गलोक पर विजय पाता है? मैं जिज्ञासुभाव से पूछ रहा हूँ; आप मुझे यह सब यथार्थ रूप से बताइये। कपिल जी ने कहा- जिनका सात्त्विक गुण से प्राकट्य हुआ है, ऐसे सभी परिग्रह शुभ हैं; परंतु त्याग में जो सुख है, उसे इनमें से कोई भी नहीं पा सके हैं। इस बात को तुम भी देखते हो। स्यूमरश्मि ने पूछा- भगवन्! आप तो ज्ञाननिष्ठ हैं और गृहस्थलोग कर्मनिष्ठ होते हैं; परंतु आप इस समय निष्ठा में सभी आश्रमों की एकता का प्रतिपादन कर रहे हैं। इस प्रकार ज्ञान और कर्म की एकता और पृथकता- दोनों का भ्रम होने से इनका ठीक-ठीक अन्तर समझ में नहीं आता है। इसलिये आप मुझे उसे यथोचित एवं यथार्थरीति से बताने की कृपा करें। कपिल जी ने कहा- कर्म स्थूल और सूक्ष्म शरीर की शुद्धि करने वाले हैं, किंतु ज्ञान परमगतिरूप है। जब कर्मों द्वारा चित्त के रागादि दोष जल जाते हैं, तब मनुष्य रस-स्वरूप ज्ञान में स्थित हो जाता है। समस्त प्राणियों पर दया, क्षमा, शान्ति, अहिंसा, सत्य, सरलता, अद्रोह, निरभिमानता, लज्जा, तितिक्षा और शम- ये परब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति के मार्ग हैं। इनके द्वारा पुरुष परब्रह्म को प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार विद्वान पुरुष को मन के द्वारा कर्म के वास्तविक परिणाम का निश्चय समझना चाहिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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