षड्-विंश (26) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: षड्-विंश अध्याय: श्लोक 18-31 का हिन्दी अनुवाद
इस विषय में यज्ञ में ऋत्विजों द्वारा गायी हुई एक गाथा है जो तीनों वेदों के आश्रित है, वह गाथा लोक में यज्ञ की प्रतिष्ठा करने वाली है। पुरानी बातों को जानने वाले लोग उसे ऐसे अवसरों पर दुहराया करते हैं। विधाता ने यज्ञ के लिये ही धन की सृष्टि की है और यज्ञ के लिये उसकी रक्षा करने के निमित्त पुरुष को उत्पन्न किया है; इसलिये सारे धन का यज्ञ कार्य में ही उपयोग करना चाहिये। भोग के लिये धन का उपयोग तो हितकर है और न उत्तम ही। धनवानों में श्रेष्ठ कुन्तीकुमार धनंजय! विधाता मनुष्यों को स्वार्थ के लिये भी जो धन देते हैं उसे यज्ञार्थ ही समझो। इसीलिये बुद्धिमान पुरुष यह समझते हैं कि धन कमी किसी एक के पास स्थिर नहीं रहता; अतः श्रद्धालु मनुष्य को चाहिये कि वह उस धन का दान कर और उसे यज्ञ में लगावे। प्राप्त किये हुए धन का दान करना ही उचित बताया है। उसे भोग में लगाना या संग्रह करके रखना ठीक नहीं है। जिसके सामने बहुत बड़ा कार्य यज्ञ आदि मौजूद है, उसे धन को संग्रह करके रखने की क्या आवश्यकता है? जो मन्दबुद्धि मानव अपने धर्म से गिरे हुए मनुष्यों को धन देते हैं, वे मरने के बाद सौ वर्षों तक विष्ठा भोजन करते हैं। लोग अधिकारी को धन नहीं देते और अनाधिकारी को दे डालते हैं, योग्य-अयोग्य पात्र का ज्ञान न होने से दानधर्म का सम्पादन भी कठिन है। प्राप्त हुए धन का उपयोग करने में दो प्रकार की भूलें हुआ करती हैं, जिन्हें ध्यान में रखना चाहिये। पहली भूल है अपात्र को धन देना और दूसरी है सुपात्र को धन न देना।'
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासन पर्व में व्यास-वाक्य-विषयक सत्ताईसवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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