महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 269 श्लोक 52-65

एकोनसप्‍तत्‍यधिकद्विशततम (269) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: एकोनसप्‍तत्‍यधिकद्विशततम अध्याय श्लोक 52-65 अध्याय: का हिन्दी अनुवाद


शास्त्र को यथार्थ रूप से न जानकर कुछ लोग वितण्‍डावाद के ही बल से राग-द्वेष से अभिभूत होने के कारण अहंकार के अधीन हो गये हैं। वे शास्‍त्रों के यथार्थ तात्‍पर्य को न जानने के कारण शास्‍त्रदस्‍यु (शास्‍त्रों के अर्थ पर डाका डालने वाले लुटेरे) कहे जाते हैं। सर्वव्‍यापी ब्रह्म का भी अपलाप करने के कारण ब्रह्मचोर की पदवी से विभूषित होते हैं। शम-दम आदि साधनों का कभी अनुष्‍ठान नहीं करते हैं तथा दम्‍भी और मोह के वश में पड़े रहते हैं। वे शम-दम आदि साधनों को सदा निष्‍फल ही देखते और समझते हैं। ज्ञान, ऐश्‍वर्य आदि सदगुणों की जिज्ञासा नहीं करते हैं। उन तमोमय शरीर वाले पुरुषों का तमोगुण ही सबसे बड़ा अवलम्‍ब है। जिस प्राणी की जैसी प्रकृति होती है, उस प्रकृति के वह अधीन होता है। उसके भीतर द्वेष, काम, क्रोध, दम्‍भ, असत्‍य और मद- ये प्रकृतिजनित गुण सदा ही विद्यमान रहते हैं। परमगति प्राप्‍त करने की इच्‍छा वाले संयमशील यदि इस प्रकार सोच-विचारकर शुभ और अशुभ दोनों का परित्‍याग कर देते हैं।

स्यूमरश्मि ने कहा- ब्रह्मन! मैंने यहाँ जो कुछ कहा है, वह सब शास्‍त्र से प्रतिपादित है; क्‍योंकि शास्‍त्र के अर्थ को जाने बिना किसी की किसी भी कार्य में प्रवृति नहीं होती। जो कोई भी न्‍यायोचित आचार है, वह सब शास्‍त्र है, ऐसा श्रुति का कथन है। जो अन्‍यायपूर्ण बर्ताव है, वह अशास्‍त्रीय है, ऐसी श्रुति भी सुनी जाती है। शास्‍त्र के बिना अर्थात शास्‍त्र की आज्ञा का उल्‍लघंन करके कोई प्रवृति सफल नहीं हो सकती, यह विद्वानों का निश्‍चय है। जो वैदिक वचनों के विरुद्ध है, वह सब अशास्‍त्रीय है, ऐसा श्रुति का कथन है। बहुत-से मनुष्‍य प्रत्‍यक्ष को ही मानने वाले हैं। वे शास्‍त्र से पृथक इहलोक पर ही दृष्टि रखते हैं। शास्‍त्रोक्‍त दोषों को नहीं देखते हैं और जैसे हम लोग शोक करते हैं, वैसे ही वे भी अवैदिकमत का आश्रय लेकर शोक किया करते हैं। आप-जैसे ज्ञानियों को भी सब जन्‍तुओं के समान ही इन्द्रियों के विषयों का अनुभव होता है। इस प्रकार चारों वर्णों और आश्रमों की जो प्रवृत्तियाँ हैं, उनमें लगे हुए मनुष्‍य एकमात्र सुख का ही आश्रय लेते हैं- उसे ही प्राप्‍त करना चाहते हैं।

उनमें से हम जैसे लोग अज्ञान से हतबुद्धि, तुच्‍छ विषयों में मन लगाने वाले तथा तमोगुण से आवृत हैं। आप ऊहापोह करने में समर्थ-कुशल हैं, अत: सार्वदेशिक सिद्धान्‍त के रूप में मोक्षसुख की अनन्‍तता बताकर आपने मन से हमें शान्ति पहुँचायी है। जो आपके समान एकाकी, योगयुक्‍त, कृतकृत्‍य और मन पर विजय पाने वाला है तथा जो केवल शरीर का अथवा उसकी रक्षा के लिये स्‍वल्‍प भिक्षान्‍नमात्र का सहारा लेकर सम्‍पूर्ण दिशाओं में विचरण कर सकता है, जिसने न्‍यायशास्‍त्र का परित्‍याग कर दिया है तथा जो सम्‍पूर्ण संसार को नाशवान होने के कारण गर्हित समझता है, ऐसा पुरुष ही वेद-वाक्‍यों का आश्रय लेकर 'मोक्ष है' यह साधिकार कह सकता है। गृहस्‍थाश्रम के अनुसार जो यह कुटुम्‍ब के भरण पोषण से सम्‍बन्‍ध रखने वाला कार्य है तथा दान, स्‍वाध्‍याय, यज्ञ, संतानोत्‍पादन एवं सदा सरल और कोमल भाव से बर्ताव करना रूप जो कर्म है, यह सब मनुष्‍य के लिये अत्‍यन्‍त दुष्‍कर है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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