महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 263 श्लोक 27-38

त्रिषष्‍टयधिकद्विशततम (263) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: त्रिषष्‍टयधिकद्विशततम अध्याय श्लोक 27-38 अध्याय: का हिन्दी अनुवाद

ज्ञानी ब्राह्मणों ने अपने को ही यज्ञ का उपकरण मानकर मानसिक यज्ञ का अनुष्‍ठान किया है। उन्‍होंने प्रजाहित की कामना से ही मानसिक यज्ञ का अनुष्‍ठान किया है। लोभी ॠत्विज् तो ऐसे लोगों का ही यज्ञ कराते हैं, जो अशुभ (मोक्ष की इच्‍छा से रहित) होते हैं, श्रेष्‍ठ पुरुष तो स्‍वधर्म का आचरण करते हुए ही प्रजा को स्‍वर्ग में पहुँचा देते हैं। जाजले! यही सोचकर मेरी बुद्धि भी सर्वत्र समान भाव ही रखती है। महामुने! श्रेष्‍ठ विद्वान ब्राह्मण सदा ही जिन द्रव्‍यों को लेकर यज्ञों में उपयोग करते हैं, उन्‍हीं के द्वारा वे दिव्‍य मार्ग से पुण्‍य लोकों में जाते हैं। जाजले! जो कामनाओं में आसक्‍त है, उसी मनुष्‍य की इस संसार में पुनरावृत्ति होती है। ज्ञानी का पुन: यहाँ जन्‍म नहीं होता। यद्यपि दोनों दिव्‍यमार्ग से ही पुण्‍य लोकों में जाते हैं, तथापि संकल्‍प-भेद से ही उनकी आवृत्ति और अनावृत्ति होती है।

ज्ञानी महात्‍माओं की इच्‍छा होते ही उनके मानसिक संकल्‍प की सिद्धियों के अनुसार बैल स्‍वयं गाड़ी में जुतकर उनकी सवारी ढोने लगते हैं, दूध देने वाली गौएं स्‍वयं ही सब प्रकार के मनोरथों की सिद्धिरूप दुग्‍ध प्रदान करती हैं। योगसिद्ध पुरुषों के पास स्‍वयं यज्ञ यूप उपस्थित हो जाते हैं और उन्‍हें लेकर वे पर्याप्‍त दक्षिणाओं से युक्‍त यज्ञों द्वारा यजन करते हैं। उनके ॠत्विजों के पास दक्षिणा भी स्‍वत: उपस्थित हो जाती है। जिसका अन्‍त:करण इस प्रकार शुद्ध एवं सिद्ध हो गया है, वही पृथ्‍वी को उपलब्‍ध कर सकता है। ब्रह्मन! इसलिये वे योगसिद्ध पुरुष औषधियों – अन्‍न आदि के द्वारा यज्ञ कर सकते हैं। जो पहले बताये अनुसार मूढ़ लोग हैं, वे उस तरह का यज्ञ नहीं कर सकते। कर्मफल का त्‍याग करने वाले महात्‍माओं का ऐसा अद्भुत माहात्‍म्‍य है, इसलिये मैं त्‍याग को आगे रखकर तुमसे ऐसी बात कह रहा हूँ। जिसके मन में कोई कामना नहीं है, जो किसी फल की इच्‍छा से कर्मों को आरम्‍भ नहीं करता, नमस्‍कार और स्‍तुति से अलग रहता है, जिसका धर्म नहीं क्षीण हुआ है, कर्म-बन्‍धन क्षीण हो गया है, उसी पुरुष को देवता लोग ब्राह्मण मानते हैं। जाजले! जो ब्राह्मण वेदाध्‍ययन, यजन और ब्राह्मणों को दान देना आदि वर्णोचित कर्म नहीं करता और मनोहर भोग-पदार्थों की लिप्‍सा रखता है, वह कुत्सित गति को प्राप्‍त होता है। किंतु निष्‍काम धर्म को देवता के समान आराध्‍य बनाने वाला मनुष्‍य यज्ञ के यथार्थ फल-मोक्ष को प्राप्‍त कर लेता है।

जाजलि ने पूछा- वैश्‍यप्रवर! मैंने आत्‍मयाजी मुनियों के समीप तुम्‍हारे द्वारा प्रतिपादित तत्त्व को कभी नहीं सुना। सम्‍भवत: यह समझने में कठिन भी है, क्‍योंकि पूर्वकालीन महर्षियों ने उसके ऊपर विशेष विचार नहीं किया है। जिन्‍होंने विचार किया है, उन्‍होंने भी उत्तम होने पर भी इस धर्म की जगत् में स्‍थापना नहीं की है; अत: मैं तुमसे ही पूछता हूँ। वणिक् पुत्र! यदि इस प्रकार आत्‍मतीर्थ में पशु अर्थात् अज्ञानी मानव आत्‍मयज्ञ का सौभाग्‍य नहीं पा सकते तो किस कर्म से उन्‍हें सुख की प्राप्ति हो सकती है ? महामते! यह बात मुझे बताओ। मैं तुम्‍हारे कथन पर अधिक श्रद्धा रखता हूँ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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