पंचविंश (25) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: पंचविंश अध्याय: श्लोक 22-36 का हिन्दी अनुवाद
युधिष्ठिर! लोक के भूत और भविष्य तथा सुख एवं दुःख को जानने वाले धर्मवेत्ता महाज्ञानी सेनजित ने ऐसा ही कहा है। जिस किसी भी दुःख से जो दुखी है, वह कभी सुखी नहीं हो सकता; क्योंकि अन्त नहीं है। एक दुःख से दूसरा दुःख होता ही रहता है। सुख-दुःख, उत्पत्ति-विनाश, लाभ-हानि और जीवन मरण- ये समय-समय पर क्रम से प्राप्त होते हैं। इसलिये धीर पुरुष इनके लिये हर्ष और शोक न करें। राजा के लिये संग्राम में जूझना ही यज्ञ की दीक्षा लेना बताया गया है। राज्य की रक्षा करते हुए रणनीति में भली-भाँति प्रतिष्ठित होना ही उसके लिये योगसाधन है तथा यज्ञ में दक्षिणा रूप से धन का त्याग एवं उत्तम रीति से दान ही राजा के लिये त्याग है। ये तीनों कर्म राजा को पवित्र करने वाले हैं, ऐसा समझे। जो राजा अहंकार छोड़कर बुद्धिमानी से नीति के अनुसार राज्य की रक्षा करता है, स्वभाव से ही यज्ञ अनुष्ठान में लगा रहता है और धर्म की रक्षा को दृष्टि में रखकर सम्पूर्ण लोकों में विचरता है, वह महामनस्वी नरेश देहत्याग के पश्चात् देवलोक में आनन्द भोगता है। जो संग्राम विजय, राष्ट्र का पालन, यज्ञ में सोमरस का पान, प्रजाओं की उन्नति तथा प्रजावर्ग के हित के लिये युक्तिपूर्वक दण्ड धारण करते हुए यु़द्ध में मृत्यु को प्राप्त होता है, वह देवलोक में आनन्द का भागी होता है। सम्यक् प्रकार से वेदों का ज्ञान, शास्त्रों का अध्ययन, राज्य का ठीक-ठीक पालन तथा चारों वर्णों का अपने-अपने धर्म में स्थापन करके जो अपने मन को पवित्र कर चुका है, वह राजा देवलोक में सुखी होता है। स्वर्ग लोक में रहने पर भी जिसके चरित्र को नगर और जनपद के मनुष्य एवं मन्त्री मस्तक झुकाते हैं, वही राजा समस्त नरपतियों में सबसे श्रेष्ठ है।
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासन पर्व में सेनजित का उपाख्यान-विषयक पच्चीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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