अष्टचत्वारिंशदधिकद्विशततम (248) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: अष्टचत्वारिंशदधिकद्विशततम श्लोक 12-24 का हिन्दी अनुवाद
जैसे जलचर पक्षी जल मे विचरता हुआ भी उससे लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार मुक्तात्मा योगी संसार में रहकर भी उसके गुण और दोषों से लिपायमान नहीं होता। इसी प्रकार जिसकी बुद्धि शुद्ध है, वह स्त्री, पुत्र आदि सम्बन्धियों में आसक्तन होने के कारण विषयों का सेवन करता हुआ भी किसी प्रकार उनके दोषों से लिप्त नहीं होता है। जो अपने पूर्वकृत कर्मो के संस्कारों का त्याग करके सदा परमात्मा में ही अनुराग रखता है, वह सम्पूर्ण प्राणियों का आत्मा हो जाता है और विषयों में कभी आसक्त नहीं होता। जीवात्मा कभी बुद्धि की ओर झुकता है और कभी गुणों की ओर। गुण आत्मा को नहीं जानते, किंतु आत्मा गुणों को सदा जानता रहता है, क्योंकि वह गुणों की द्रष्टा और यथावत् रूप से स्त्रष्टा भी है। यद्यपि बुद्धि और क्षेत्रज्ञ दोनों ही सूक्ष्म वस्तु हैं, किंतु उन दोनों में यही अन्तर समझो कि बुद्धि दृश्य है और आत्मा द्रष्टा है। इन दोनो में से एक (बुद्धि) तो गुणों की सृष्टि करती है और दूसरा (आत्मा) गुणों की सृष्टि नहीं करता है। वे दोनों स्वरूपत: एक दूसरे से पृथक् हैं; परंतु सदा संयुक्त रहते है। जैसे मछली जल से भिन्न है, फिर भी वे एक दूसरे से संयुक्त रहते हैं। जैसे गूलर और उसके कीडे़ एक दूसरे से पृथक् हैं तथापि परस्पर संयुक्त रहते है। उसी प्रकार बुद्धि और क्षेत्रज्ञ को भी समझना चाहिये। जैसे मूँज में जो सींक है, वह उससे पृथक् है तो भी वे दोनों साथ ही रहते हैं, उसी प्रकार बुद्धि और क्षेत्रज्ञ सर्वथा एक दूसरे से पृथक् होते हुए भी दोनों साथ-साथ और एक दूसरे के आश्रित रहते हैं। इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्व में शुकदेव का अनुप्रश्नविषयक दौ सो अड़तालीसवॉ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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