महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 245 श्लोक 28-36

पंचचत्‍वारिंशदधिकद्विशततम (245) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: पंचचत्‍वारिंशदधिकद्विशततम श्लोक 28-36 का हिन्दी अनुवाद


आत्‍मयज्ञ करने वाला ज्ञानी पुरुष नाभि से लेकर हृदय तक का जो प्रदेश मात्र स्‍थान है, उसमें प्रकट हुई जो चैतन्‍य ज्‍योति है, उसी में समस्‍त प्राणों की इन्द्रिय, मन आदि की आहुति देता है अर्थात् समस्‍त प्राणादि का आत्‍मा में लय करता है। उसका प्राणाग्निहोत्र यद्यपि अपने शरीर के भीतर ही होता है तथापि वह सर्वात्‍मा होने के कारण उसके द्वारा देवताओं सहित सम्‍पूर्ण लोकों में प्राणाग्निहोत्र कर्म सम्‍पन्‍न हो जाता है; अर्थात् उसके प्राणों की तृप्ति से सम्‍पूर्ण ब्रह्माण्‍ड के प्राण तृप्‍त हो जाते हैं। जो सम्‍पूर्ण जगत् में अपने चिन्‍मयस्‍वरूप से प्रकाशित होता है, तीन धातु (वर्ण-अकार,उकार, मकार) अर्थात् प्रणव जिसका वाचक है, जो सत्‍व आदि तीनों गुणों में-त्रिगुणमयी माया में उसके नियन्‍तारूप से विद्यमान है तथा जिसके जगत् सम्‍बन्‍धी व्‍यापार वृक्ष के सुन्‍दर पतों के समान विस्‍तार को प्राप्‍त हुए हैं, उस अन्‍तर्यामी पुरुष को तथा उसकी उत्तम परब्रह्मास्‍वरूपता को जो जानते है, वे सम्‍पूर्ण लोकों में सम्‍मानित होते हैं और मनुष्‍योंसहित सम्‍पूर्ण देवता उनके शुभकर्म की प्रशंसा करते हैं।

सम्‍पूर्ण वेदशास्‍त्र,ज्ञेय वस्‍तु (आकाश आदि भूत और भौतिक जगत्), समस्‍त विधि (कर्मकाण्‍ड), निरूक्त (शब्‍दप्रमाणगम्‍य परलोक आदि) और परमार्थता (आत्‍मा की सत्‍यस्‍वरूपता) यह सब कुछ शरीर के भीतर विद्यमान आत्‍मा में ही प्रतिष्ठित है। ऐसा जो जानता है, उस सर्वात्‍मा ज्ञानी पुरुष की सेवा के लिये देवता भी सदा लालायित रहते हैं। जो पृथ्‍वीपर रहकर भी उसमें आसक्त नहीं है, अनन्‍त आकाश में अप्रमेयभाव से स्थित है, जो हिरण्‍मय (चिन्‍मय ज्‍योतिस्‍वरूप), अण्‍डज-ब्राह्मण्‍ड के भीतर प्रादुर्भूत और अण्‍ड-पिण्‍डात्‍मक शरीर के मध्‍यभाग में स्थित हृदय कमल के आसनपर, भोग्‍यात्‍मा (शरीर) के अन्‍तर्गत हृदयाकाश में जीवरूप से विराजमान है; जिसमें अनेक अंगदेवता छोटे-छोटे पंखों के समान शोभा पाते हैं तथा जो मोद और प्रमोद नामक दो प्रमुख पंखों से शोभायमान है; उस सुवर्णमय पक्षीरूप जीवात्‍मा एवं ब्रह्माको जो जानता है, वह ज्ञानकी तेजोमयी किरणों से प्रकाशित होता है। जो निरन्‍तर घूमता रहता है, कभी जीर्ण या क्षीण नहीं होता; जो लोगों की आयु को क्षीण करता है, छ: ऋतुएँ जिसकी नाभि हैं, बारह महीने जिसके अरे हैं, दर्शपौर्णमास आदि जिसके सुन्‍दर पर्व हैं; यह सम्‍पूर्ण विश्‍व जिसके मुँह में भक्ष्‍य पदार्थ के समान जाता है, वह कालचक्र बुद्धिरूपी गुहा में स्थित है (उसे जो जानता है, देवगण उसके शुभकर्म की प्रंशसा करते हैं)। जो मन को प्रसन्‍नता प्रदान करता है, इस जगत् का शरीर है अर्थात् सम्‍पूर्ण जगत् जिसके विराट् शरीर में विराजित है, वह परमात्‍मा इस जगत् में सब लोकों को घेरे हुए स्थित है।

उस परमात्‍मा में ध्‍यान द्वारा स्‍थापित किया हुआ मन, इस देह में स्थित देवताओं प्राणों को तृप्‍त करता है और वे तृप्‍त हुए प्राण उस ज्ञानी के मुख को ज्ञानामृत से तृप्‍त करते हैं। जो ब्रह्मज्ञानमय तेज से सम्‍पन्‍न और पुरातन नित्‍य-ब्रह्मपरायण है, वह भिक्षु अनन्‍त एवं निर्भय लोकों को प्राप्‍त होता है। जिससे जगत् के प्राणी कभी भयभीत नहीं होते, वह भी संसार के प्राणियों से कभी भय नहीं पाता है। जो नतो स्‍वयं निन्‍दनीय है और न दूसरों की निन्‍दा करताहै, वही ब्राह्मण परमात्‍मा का दर्शन कर सकता है।जिसके मोह और पाप दूर हो गये हैं, वह इस लोक और परलोक के भोगों में आसक्त नहीं होता। ऐसे संन्‍यासी को रोष और मोह नहीं छू सकते। वह मिट्टी के ढेले और सोने को समान समझता है। पाँच कोशों का अभिमान त्‍याग देता है और संधि विग्रह तथा निन्‍दा स्‍तुति से रहित हो जाता है। उसकी दृष्टि में न कोई प्रिय होता है न अप्रिय। वह संन्‍यासी उदासीन की भाँति सर्वत्र विचरता रहता है।


इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्‍तर्गत मोक्षधर्मपर्व में शुकदेव का अनुप्रश्‍नविषयक दौ सो पैंतालीसवॉ अध्‍याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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