त्रिचत्वारिंशदधिकद्विशततम (243) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: त्रिचत्वारिंशदधिकद्विशततम श्लोक 14-29 का हिन्दी अनुवाद
गृहस्थ ब्राह्मण के लिये जो तीन आजीविका की वृत्तियाँ बतायी गयी हैं, उनमें उत्तरोतर श्रेष्ठ एंव कल्याणकारिणी हैं। इसी प्रकार चारों आश्रम भी उत्तरोतर श्रेष्ठ कहे गये हैं। उन आश्रमों के जो शास्त्रोक्त नियम हैं, उन सबका उन्नति चाहने वाले पुरुष को पालन करना चाहिये। कुंडेभर अनाज का संग्रह करके अथवा अच्छशिल (अनाज के एक-एक दाने बीनने अथवा उस अनाज की बाली बीनने) के द्वारा अन्न का संग्रह करके ‘कापोतीवृत्ति’ का आश्रय लेने वाले पूजनीय ब्राह्मण जिस देश में निवास करते हैं, उस राष्ट्र की वृद्धि होती है। जो मन में तनिक भी क्लेश का अनुभव न करके गृहस्थ की इन वृत्तियों के सहारे जीवन निभाता है, वह अपनी दस पीढ़ी के पूर्वजों को तथा दस पीढ़ी तक आगे होने वाली संतानों को पवित्र कर देता है। उसे चक्रधारी श्रीविष्णु के लोक के सदृश उत्तम लोकों की प्राप्ति होती है अथवा वह जितेन्द्रिय पुरुष को मिलने वाली श्रेष्ठगति प्राप्त कर लेता है। उदारचित्त वाले गृहस्थों को हितकार के स्वर्गलोक प्राप्त होता है। उनके लिये विमान सहित सुन्दर फूलों से सुशोभित परम रमणीय स्वर्ग सुलभ होता है, जिसका वेदों में वर्णन है। मन और इन्द्रियों को संयम में रखने वाले गृहस्थों के लिये स्वर्गलोक ही प्रतिष्ठा का स्थान नियत किया है। ब्रह्माजी ने गार्हस्थ आश्रम को स्वर्ग की प्राप्ति का कारण बनाया है; इसीलिये इसके पालन का विधान किया गया है। इस प्रकार क्रमश: द्वितीय आश्रम गार्हस्थ को पाकर मनुष्य स्वर्गलोक में प्रतिष्ठित होता है। इस गृहस्थाश्रम के पश्चात तीसरा उससे भी श्रेष्ठ परम उदार वानप्रस्थ आश्रम है; जो शरीर को सुखाकर अस्थिचर्मावशिष्ट कर देने वाले तथा वन में रहकर तपस्यापूर्वक शरीर को त्यागने वाले वानप्रस्थियों का आश्रय है। यह गृहस्थों से श्रेष्ठतम माना गया हैं, अब इसके धर्म बताया हॅू, सूनो। इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्व में शुकदेव का अनुप्रश्न विषयक दो सौ तैतलीसवॉ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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