महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 242 श्लोक 13-25

द्विचत्‍वारिंशदधिकद्विशततम (242) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

Prev.png

महाभारत: शान्ति पर्व: द्विचत्‍वारिंशदधिकद्विशततम श्लोक 13-25 का हिन्दी अनुवाद


व्‍यासजी बोले– बेटा! ब्रह्माचारी, गृहस्‍थ, वानप्रस्‍थ और सन्‍यासी– ये सभी अपने-अपने आश्रम के लिये विहित शास्‍त्रोक्‍त कर्मों का पालन करते हुए परम गति को प्राप्‍त होते हैं। यदि कोई एक पुरुष भी इन आश्रमों के धर्मों का राग-द्वेष से शून्‍य होकर विधिपूर्वक अनुष्‍ठान कर ले तो वह परब्रह्मा परमात्‍मा को जानने का अधिकारी हो जाता है। ये चारों आश्रम ब्रह्मा में ही प्रतिष्ठित हैं और ब्रह्मा तक पहुँचाने के लिये चार पैंडी वाली सीढ़ी के समान माने गये हैं। इस सीढ़ी पर चढ़कर मनुष्‍य ब्रह्मालोक में सम्‍मानित होता है। द्विज के बालक को चाहिये कि ब्रह्माचर्य का पालन करते हुए गुरु अथवा गुरुपुत्र की सेवा में अपनी आयु के एक चौथाई भाग अर्थात् पच्‍चीस वर्षों तक रहे। वहाँ रहते हुए किसी के दोष न देखे। ऐसा करने वाला ब्रह्माचारी धर्म और अर्थ के ज्ञान में कुशल होता है।

वह गुरु के सोने के पश्‍चात् नीचे आसन पर सोवे और उनके जागने से पहले ही उठ जाय। गुरु के घर में एक शिष्‍य या दास के करने योग्‍य जो कुछ भी कार्य हो, उसे वह स्‍वयं पूरा करे। गुरुजी जो भी आज्ञा दें उसके लिये सदा यही उत्‍तर दे कि ‘भगवन्! इसे अभी पूरा किया’ और वह सब कार्य करके उनके पास आकर खड़ा जो जाय। ‘मेरे लिये क्‍या आज्ञा है ? ‘ऐसा पूछते हुए एक आज्ञाकारी सेवक की भाँति गुरु का सारा कार्य करने के लिये तैयार रहे और कर्मों के सम्‍पादन में कुशल हो। अपनी उन्‍नति चाहने वाले शिष्‍य को गुरु की सेवा टहलका सारा कार्य समाप्‍त करके उनके पास बैठकर अध्‍ययन करना चाहिये। वह सबके प्रति सदा उदार रहें और किसी पर कोई कलंक न लगावे। गुरु के बुलाने पर झट उनकी सेवा में उपस्थित हो जाय। बाहर भीतर से पवित्र रहे। कार्य में कुशल हो। गुणवान् बने। भीतर से सद्भावना रखकर बीच-बीच में ऐसी बात बोले जो गुरु को प्रिय लगने वाली हो। शान्‍त भाव से भक्ति भरी दृष्टि डालकर गुरु की ओर देखे और इन्द्रियों को वश में रखे।

आचार्य जब तक भोजन न कर लें, तब तक स्‍वयं भी न खाय। वे जब तक जल पान न कर लें, तब तक स्‍वयं भी न करे। उनके बैठने से पहले स्‍वयं भी न बैठे और उनके सोने से पहले स्‍वयं भी न सोये। दोनों हाथ फैलाकर अपने दाहिने हाथ से गुरु का दाहिना चरण और बायें हाथ से उनका बायॉ चरण धीरे-धीरे छूकर प्रणाम करें। इस प्रकार अभिवादन के पश्‍चात् हाथ जोड़कर गुरु से कहें- भगवन्! अब आप मुझे पढ़ावें। मैंने अमुक काम पूरा कर लिया है और यह अमुक कार्य अभी करूँगा। ‘ब्रह्मान! इसके सिवा और भी जिन कार्यों के लिये आप आज्ञा देंगे, उन्‍हें भी मैं शीघ्र पूर्ण करूँगा’। इस तरह सब बातें विधिवत निवेदन करके गुरु की आज्ञा लेकर फिर दूसरा कार्य करे और उसे पूरा करके पुन: उसका सारा समाचार गुरुजी को बतावे। जिन-जिन गन्‍धों और रसों का ब्रह्माचारी को सेवन नहीं करना चाहिये, उनका वह ब्रह्माचर्यकाल में त्‍याग करे। समावर्तन संस्‍कार के बाद ही वह उनका सेवन कर सकता है, य‍ही धर्म का निश्‍चय है।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः