त्रयोविंश (23) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: त्रयोविंश अध्याय: श्लोक 40-47 का हिन्दी अनुवाद
तब शंख ने उनसे कहा- 'भाई! इस विषय में तुम्हें शंका नहीं होनी चाहिये। मैंने तपस्या से तुम्हारे हाथ उत्पन्न किये हैं। यहाँ देव का विधान ही सफल हुआ है’। तब लिखित ने पूछा- महातेजस्वी द्विजश्रेष्ठ! जब आपकी तपस्या का ऐसा बल है तो आपने पहले ही मुझे पवित्र क्यों नहीं कर दिया? शंख बोले- भाई! यह ठीक है, मैं ऐसा कर सकता था; परंतु मुझे तुम्हें दण्ड देने का अधिकार नहीं है। दण्ड देने का कार्य तो राजा का ही है। इस प्रकार दण्ड देकर राजा सुद्युम्न और उस दण्ड को स्वीकार करके तुम पितरों सहित पवित्र हो गये। व्यास जी कहते हैं- पाण्डव श्रेष्ठ युधिष्ठिर! उस दण्ड- प्रदानरूपी कर्म से राजा सुद्युम्न उच्चतम पद को प्राप्त हुए। उन्होंने प्रचेताओं के पुत्र दक्ष की भाँति परम सिद्धि प्राप्त की थी। महाराज! प्रजाजनों का पूर्ण रूप से पालन करना ही क्षत्रियों का मुख्य धर्म है। दूसरा काम उसके लिये कुमार्ग के तुत्य है; अतः तुम मन को शोक में न डुबाओ। धर्म के ज्ञाता सत्पुरुष! तुम अपने भाई की हितकर बात सुनो। राजेन्द्र! दण्ड-धारण ही क्षत्रिय-धर्म के अन्तर्गत है, मूँड़ मुड़ाकर संन्यासी बनना नहीं। इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासन पर्व में व्यास-वाक्य-विषयक तेईसवाँ अध्याय पूरा हुआ।
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
|