द्वात्रिंशदधिकद्विशततम (232) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: द्वात्रिंशदधिद्विशततम श्लोक 26-39 का हिन्दी अनुवाद
वेदों मे ऋषियो के नाम तो हैं ही, सृष्टि में उत्पन्न हुए सब पदार्थों के भी नाम हैं। अजन्मा ब्रह्मा जी अपनी रात्रि के अन्त में अर्थात नूतन सृष्टि के प्रभात काल में अपने द्वारा रचे गये सभी पदार्थों का दूसरों के लिये नाम-निर्देश करते हैं। फिर ब्रह्मा जी ने ऋग्वेद आदि के नाम, वर्ण और आश्रम के भेद, तप, शम, दम (कृच्छ्र-चान्द्रायपादि व्रत), कर्म (संध्योपासनआदि नित्य कर्म) और ज्योतिष्टोम आदि यज्ञ बनाये। ये नाम आदि लौकिक सिद्धियाँ हैं। आत्मा (के मोक्ष) की सिद्धि तो वेदों में दस स्वाध्याय, गार्हस्थ्य, संध्यावन्दनादि, कृच्छ्रचान्द्रायपादि, यज्ञ, पूर्तकर्म, योग, दान, गुरुशुश्रूषा और समाधि– ये दस क्रमयोग है। उपायों द्वारा बतायी जाती है। जो गहन (दुर्बोध) ब्रह्म वेदवाक्यों मे वेददर्शी विद्वानों द्वारा वर्णित हुआ है और वेदान्तवचनों में जिसका स्पष्टरूप से वर्णन किया गया है, वह क्रमयोग से लक्षित होता है। देहाभिमानी जीव को जो यह पृथक्-पृथक् शीत-उष्ण आदि द्वन्द्वों का भोग प्राप्त होता है, वह कर्मजनित है। मनुष्य तत्वज्ञान के द्वारा उस द्वन्द्वभोग को त्याग देता है तथा ज्ञान के ही बल से आत्मसिद्धि (मोक्ष) प्राप्त कर लेता है। ब्रह्म के दो स्वरूप जानने चाहिये- एक शब्द ब्रह्म और दूसरा परब्रह्म, जो शब्दब्रह्म अर्थात वेद का पूर्ण विद्वान हैं, वह सुगमता से परब्रह्म का साक्षात्कार कर लेता है। ब्राह्मणों के लिये तप ही यज्ञ है, क्षत्रियों के लिये हिंसा प्रधान युद्ध आदि ही यज्ञ हैं, वैश्यों के लिये घृत आदि हविष्य की आहुति देना ही यज्ञ हैं और शूद्रों के लिये तीनों वर्णो की सेवा ही यज्ञ है। यह यज्ञों का विधान त्रेतायुग में ही था, सत्ययुग में नहीं। द्वापर से क्रमश: क्षीण होते हुए यज्ञ कलियुग में लुप्त हो जाते हैं। सत्ययुग में अद्वैत धर्म में निष्ठा रखने वाले मनुष्य ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद तथा सकाम इष्टियों को ज्ञानरूप तपस्या से भिन्न देखकर उन सबको छोड़ केवल ज्ञानरूप तपस्या में ही संलग्न होते हैं। त्रेतायुग में जो महाबली नरेश प्रकट हुए थे, वे सब के सब समस्त चराचर प्राणियों के नियन्ता थे। त्रेतायुग में वेद, यज्ञ और वर्णाश्रम-धर्म सुव्यवस्थितरूप से पालित होते थे; परंतु द्वापरयुग में आयु की न्यूनता होने से लोगों में उनके पालन का उत्साह कम हो गया-वे वेद यज्ञ आदि से च्युत होने लगे। कलियुग आने पर तो कहीं वेदों का दर्शन होता है और कहीं नहीं होता है। उस समय केवल अधर्म से पीड़ित होकर यज्ञ और वेद लुप्त हो जाते हैं। सत्ययुग मे जिस चारो चरणों वाले धर्म की चर्चा की गयी है, वह अन्य युगों में भी मन को वश में रखने वाले तपस्वी एवं वेद वेदान्तों के ज्ञाता ब्राह्मणों में प्रतिष्ठित देखा जाता है। सत्ययुग में मनुष्य स्वभाव के अनुसार यज्ञ, व्रत और तीर्थाटन आदि करते हैं और त्रेता आदि युग में वेदवादी एवं स्वधर्मनिष्ठ पुरुष शास्त्र के कथनानुसार धर्म के ह्रास से विकार को प्राप्त होते हैं। जैसे वर्षाकाल में जल की वर्षा होने से स्थावर और जंगम समस्त पदार्थ वृद्धि को प्राप्त होते हैं और वर्षा बीतने पर उनका ह्रास होने लगता है, उसी प्रकार प्रत्येक युग में धर्म और अधर्म की वृद्धि एवं ह्रास होते रहते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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