द्वात्रिंशदधिकद्विशततम (232) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: द्वात्रिंशदधिद्विशततम श्लोक 13-25 का हिन्दी अनुवाद
भूतो के आदि कर्ता ब्रह्मा जी ही तपस्या के लिये समस्त सूक्ष्म भूतों को साथ लेकर समष्टि शरीर में प्रवेश करके स्थित होते हैं; इसलिये मुनिजन उन्हें प्रजापति कहते हैं। तदनन्तर वे ब्रह्म ही चराचर प्राणियों की सृष्टि करते हैं। वे ही देवता, ऋषि, पर्वत, वनस्पति, किन्नर, राक्षस, पशु, पक्षी, मृग तथा सर्पों को भी उत्पन्न करते हैं। अक्षय आकाश आदि और क्षयशील चराचर प्राणियों की सृष्टि भी उन्हीं के द्वारा हुई है। पूर्वकल्प की सृष्टिमें जिन प्राणियों द्वारा जैसे कर्म किये गये होते हैं, दूसरे कल्पों में बारंबार जन्म लेने पर वे उन पूर्वकृत कर्मों की वासना से प्रभावित होने के कारण वैसे ही कर्म करने लगते हैं। एक जन्म में मनुष्य हिंसा अहिंसा, कोमलता-कठोरता, धर्म-अधर्म और सच-झूठ आदि जिन गुणों या दोषों को अपनाता है, दूसरे जन्म में भी उनके संस्कारों से प्रभावित होकर उन्हीं गुणों को वह पसंद करता और वैसे ही कार्यो में लग जाता है। आकाश आदि महाभूतों में, शब्द आदि विषयों में तथा देवता आदि की आकृतियों में जो अनेकता और भिन्नता है तथा प्राणियों की जो भिन्न-भिन्न कार्यों में नियुक्ति है, इन सबका विधान विधाता ही करते हैं। कुछ लोग कर्मों की सिद्धि में पुरुषार्थ को ही प्रधान मानते है। दूसरे ब्राह्मण दैव को प्रधानता देते हैं और भूतचिन्तक नास्तिकगण स्वभाव को ही कार्यसिद्धि का कारण बताते है। कुछ विद्वान कहते हैं कि पुरुषार्थ, दैव और स्वभावसे अनुगृहीत कर्म- इन तीनों के सहयोग से फल की सिद्धि होती है। ये तीनों मिलकर ही कार्य साधक होते हैं। इनका अलग-अलग होना कार्य की सिद्धि का हेतु नहीं होता है। कर्मवादी इस विषय में यह पुरुषार्थ ही कार्यसाधक है, ऐसा नहीं कहते। ऐसा नहीं है, अर्थात पुरुषार्थ नहीं, दैव कारण है, यह भी नहीं कहते। दोनों मिलकर कार्यसिद्धि के हेतु हैं, यह भी नहीं कहते और दोनों नहीं हैं, यह भी नहीं कहते। तात्पर्य यह है कि वे इस विषय में कुछ निश्चय नहीं कर पाते हैं; परंतु जो सत्वस्वरूप परमात्मा में स्थित हुए योगी हैं, वे समदर्शी हैं अर्थात शम (ब्रह्म) को ही कारण मानते है। तप ही जीव के कल्याण का मुख्य साधन है। तप का मूल है शम और दम। पुरुष अपने मन से जिन-जिन कामनाओं को पाना चाहता है, उन सबको वह तपस्या से प्राप्त कर लेता है। तपस्या से वह उस परमात्मसत्ता को भी प्राप्त कर लेता जिससे इस जगत की सृष्टि होती है। तप से परामत्मस्वरूप होकर मनुष्य समस्त प्राणियों पर अपना प्रभुत्व स्थापित करता है। तप के ही प्रभाव से महर्षिगण दिन-रात वेदों का अध्ययन करते थे। तप: शक्ति से सम्पन्न होकर ही ब्रह्मा जी ने आदि-अन्त से रहित वेदमयी वाणी का प्रथम उच्चारण किया। ऋषियों के नाम, वेदोक्त, सृष्टिक्रम के अनुसार रचे हुए सब पदार्थो के नाम, प्राणियों के अनेक विध रूप तथा उनके कर्मों का विधान- यह सब कुछ वे ऐश्वर्यशाली प्रजापति सृष्टि के आदिकाल में वेदोक्त शब्दों के अनुसार ही रचते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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