त्रिंशदधिकद्विशततम (230) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: त्रिंशदधिकद्विशततम श्लोक 16-24 का हिन्दी अनुवाद
उनकी मेरे प्रति दृढ़ भक्ति है। वे विद्वान और दयालु हैं। उनके मोह आदि दोष दूर हो गये हैं; इसीलिये उनका सर्वत्र आदर है। वे सम्पूर्ण प्राणियों में आसक्ति से रहित है; फिर भी आसक्त हुए से दिखायी देते है। उनके मन में दीर्घकाल तक कोई संशय नहीं रहता और वे बहुत अच्छे वक्ता हैं; इसीलिये उनकी सर्वत्र पूजा होती है। उनका मन कभी विषय भोगों में स्थित नहीं होता और वे कभी अपनी प्रशंसा नहीं करते हैं। किसी के प्रति ईर्ष्या नहीं रखते तथा सबसे मीठे वचन बोलते हैं; इसीलिये उनका सर्वत्र आदर होता है। नारद जी लोगों की नाना प्रकार की चित्तवृत्ति को देखते और समझते हैं। फिर भी किसी की निन्दा नहीं करते। किसका संसर्ग कैसा है? इसके ज्ञान में वे बड़े निपुण हैं; इसीलिये वे सर्वत्र पूजित होते हैं। वे किसी शास्त्र में दोषदृष्टि नहीं करते। अपनी नीति के अनुसार जीवन-यापन करते हैं। समय को कभी व्यर्थ नहीं गॅवाते और मन को वश में रखते हैं; इसीलिये वे सर्वत्र सम्मानित होते हैं। उन्होंने योगाभ्यास के लिये बड़ा परिश्रम किया है। उनकी बुद्धि पवित्र है। उन्हें समाधि से कभी तृप्ति नहीं होती। वे कर्तव्य पालन के लिये सदा उद्यत रहते हैं और कभी प्रमाद नहीं करते हैं; इसीलिये सर्वत्र पूजे जाते हैं। नारद जी निर्लज्ज नहीं हैं। दूसरों की भलाई के लिये सदा उद्यत रहते हैं; इसीलिये दूसरे लोग उन्हें अपने कल्याणकारी कार्यों में लगाये रखते हैं तथा वे किसी के गुप्त रहस्य को कहीं प्रकट नहीं करते हैं; इसीलिये उनका सर्वत्र सम्मान होता है। वे धन का लाभ होने से प्रसन्न नहीं होते और उसके न मिलने से उन्हें दु:ख नहीं होता है। उनकी बुद्धि स्थिर और मन आसक्ति रहित है; इसीलिये सर्वत्र पूजित हुए हैं। वे सम्पूर्ण गुणों से सुशोभित, कार्यकुशल, पवित्र, नीरोग, समय का मूल्य समझने वाले और परम प्रिय आत्मतत्त्व के ज्ञाता हैं; फिर कौन उन्हें अपना प्रिय नहीं बनायेगा ? । इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्व में श्रीकृष्ण और उग्रसेन का संवाद विषयक दो सौ तीसवॉ अध्याय पूरा हुआ । |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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