महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 228 श्लोक 20-38

अष्‍टाविंशत्‍यधिकद्विशततम (228) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: अष्‍टाविंशत्‍यधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 20-38 का हिन्दी अनुवाद

लक्ष्‍मी ने कहा- इन्‍द्र! तीनों पुण्‍यमय लोकों में समस्‍त चराचर प्राणी मुझे प्राप्‍त करने की इच्‍छा से परम उत्‍साहपूर्वक प्रयत्‍न करते रहते हैं। मैं समस्‍त प्राणियों को ऐश्‍वर्य प्रदान करने के लिए सूर्य की किरणों के ताप से खिले हुए कमल में प्रकट हुई हुआ हूँ। मेरा नाम पहा, श्रीपदामालिनी है। बलसूदन! मैं ही लक्ष्‍मी हूँ। मैं ही भूति हूँ और मैं ही श्री हूँ। मैं श्रद्धा, मेधा, संनति, विजिति, स्थितिधृति, सिद्धि, कान्ति, समृद्धि, स्‍वाहा, स्‍वधा, संस्‍तुति नियति और स्‍मृति हूँ। युद्ध में विजय पाने वाले राजाओं की सेनाओं के अग्रभाग में फहराने वाले ध्‍वजाओं और स्‍वभाव से धर्माचरण करने वाले श्रेष्ठ पुरुषों के निवास स्‍थान में, उन राज्‍य और नगरों में भी मैं सदा निवास करती हूँ। बलसूदन! संग्राम से पीछे न हटने वाले तथा विजय से सुशोभित होने वाले शूरवीर नरेश के शरीर में भी मैं सदा ही मौजूद रहती हूँ। नित्‍य धर्माचरण करने वाले, परम बुद्धिमान, ब्राह्मण भक्‍त, सत्‍यवादी, विनयी तथा दानशील पुरुष में भी मैं सदा ही निवास करती हूँ। सत्‍य और धर्म से बँधकर पहले मैं असुरों के यहाँ रहती थी। अब उन्‍हें धर्म के विपरीत देखकर मैंने तुम्‍हारे यहाँ रहना पसंद किया है।

इंद्र ने कहा- सुमुखि! दैत्यों का आचरण पहले कैसा था? जिससे तुम उनके पास रहती थी और अब क्या देखा है, जो उन दैत्यों और दानवों को छोड़कर यहाँ चली आयी हो?

लक्ष्‍मी ने कहा- इन्‍द्र! जो अपने धर्म का पालन करते, धैर्य से कभी विचलित नहीं होते और स्‍वर्ग प्राप्ति के साधनों में सानन्‍द लगे रहते हैं, उन प्राणियों के भीतर मैं सदा निवास करती हूँ। पहले दैत्‍य लोग दान, अध्‍ययन और यज्ञ-याग में संलग्‍न रहते थे। देवता, गुरु, पितर और अतिथियों की पूजा करते थे। उनके यहाँ सत्‍य का भी पालन होता था। वे अपना घर द्वार झाड़ बुहारकर साफ रखते थे। अपनी स्त्री के मन को प्‍यार से जीत लेते थे। प्रतिदिन अग्निहोत्र करते थे। वे गुरुसेवी, जितेन्द्रिय, ब्राह्मण भक्‍त तथा सत्‍यवादी थे। उनमें श्रद्धा थी। वे क्रोध को जीत चुके थे। वे दानी थे। दूसरों के गुणों में दोषदृष्टि नहीं रखते थे और ईर्ष्‍यारहित थे। वे स्त्री, पुत्र और मन्‍त्री आदि का भरण पोषण करते थे। अमर्षवश कभी एक दूसरे के प्रति लाग-डॉट नहीं रखते थे। सभी धीर स्‍वभाव के थे। दूसरों की समृद्धियों से उनके मन में कभी संताप नहीं होता था। वे दान देते, कर आदि के द्वारा धन संग्रह करते तथा आर्य जनोचित आचार विचार से रहते थे। वे दया करना जानते थे। वे दूसरों पर महान अनुग्रह करने वाले थे। वे सभी सरल स्‍वभाव के दृढ़तापूर्वक भक्ति रखने वाले थे। उन सबने अपनी इन्द्रियों पर विजय पायी थी। वे अपने भृत्‍यों और मन्त्रियों को संतुष्‍ट रखते थे। कृतज्ञ और मधुरभाषी थे। सबका समुचित रूप से सम्‍मान करते, सबको धन देते, लज्‍जा का सेवन करते और व्रत एवं नियमों का पालन करते थे। सदा ही पर्वोपर विशेष स्‍नान करते, अपने अंगों में चन्‍दन लगाते और सुन्‍दर अलंकार धारण करते थे। स्‍वभाव से ही उपवास और तप में लगे रहते थे। सबके विश्‍वासपात्र थे और वेदों का स्‍वाध्‍याय किया करते थे।

दैत्‍य कभी प्रात:काल सोये नहीं रहते थे। उनके सोते समय सूर्य नहीं उगते थे; अर्थात वे सूर्योदय से पहले ही जाग उठते थे। वे रात में कभी दही और सत्‍तू नहीं खाते थे। वे मन और इन्द्रियों में संयम रखते, सबेरे उठकर घी का दर्शन करते, वेदों का पाठ करते, अन्‍य मागंलिक वस्‍तुओं को देखते और ब्राह्मणों की पूजा करते थे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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