चतुर्विंशत्यधिकद्विशततम (224) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: चतुर्विंशत्यधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 16-32 का हिन्दी अनुवाद
सम्पूर्ण जगत का संहार और सृष्टि इन दोनों कार्यों को कौन करता है? वह सब प्राणियों के कर्मों द्वारा ही किया गया है और उनका भी प्रयोजक कोई और (ईश्वर) ही है। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश- ये ही सम्पूर्ण प्राणियों के शरीरों के कारण हैं; अत: उनके लिये शोक और विलाप की क्या आवश्यकता है? कोई बड़ा भारी विद्वान हो या अल्पविद्या से युक्त, बलवान हो या दुर्बल, सुन्दर हो या कुरुप, सौभाग्यशाली हो या दुर्भाग्ययुक्त, गम्भीर काल सबको अपने तेज से ग्रहण कर लेता है; अत: उन सबके काल के अधीन हो जाने पर जगत की क्षणभंगुरता को जानने वाले मुझ बलि को क्या व्यथा हो सकती है? जो काल के द्वारा दग्ध हो चुका है, उसी को पीछे से आग जलाती है। जिसे काल ने पहले से ही मार डाला है, वही किसी दूसरे के द्वारा मारा जाता हैं। जो पहले से ही नष्ट हो चुकी है, वही वस्तु किसी के द्वारा नष्ट की जाती है तथा जिसका मिलना पहले से ही निश्चय है, उसी को मनुष्य हस्तगत करता है। मैं बहुत सोचने पर भी दिव्य विधाता काल का अन्त नहीं देख पाता हूँ। उस समुद्र जैसे काल का कहीं द्वीप भी नहीं है, फिर पार कहाँ से प्राप्त हो सकता है? उसका आर-पार कहीं नहीं दिखायी देता है। शचीपते! यदि काल मेरे देखते-देखते समस्त प्राणियों का विनाश नहीं करता तो मुझे हर्ष होता, अपनी शक्ति पर गर्व होता और उस क्रूर काल पर मुझे क्रोध भी होता। इस एकान्त गृह में गर्दभ का रूप धारण किये मुझे भूसी खाता जानकर तुम यहाँ आये हो और मेरी निन्दा करते हो। मैं चाहूँ तो अपने बहुत से ऐसे भयानक रूप प्रकट कर सकता हूँ, जिन्हें देखकर तुम्हीं मेरे निकट से भाग खड़े होओगे। इन्द्र! काल ही सबको ग्रहण करता है, काल ही सब कुछ देता है तथा काल ने ही सब कुछ किया है; अत: अपने पुरुषार्थ का गर्व न करो। पुरन्द! पूर्वकाल में मेरे कुपित होने पर सारा जगत व्यथित हो उठता था। इस लोक की कभी वृद्धि होती है और कभी ह्रास। यह इसका सनातन स्वभाव है। शक्र! इस बात को मैं अच्छी तरह जानता हूँ। तुम भी जगत को इसी दृष्टि से देखो। अपने मन में विस्मित न होओ। प्रभुता और प्रभाव अपने अधीन नहीं हैं। तुम्हारा चित्त अभी बालक के समान है। वह जैसा पहले था, वैसा ही आज भी है। मघवन! इस बात की ओर दृष्टिपात करो और नैष्ठिक बुद्धि प्राप्त करो। वासव! एक दिन देवता, मनुष्य, पितर, गन्धर्व, नाग और राक्षस ये सभी मेरे अधीन थे। वह सब कुछ तुम जानते हो। मेरे शत्रु अपने बुद्धिगत द्वेष से मोहित होकर मेरी शरण ग्रहण करते हुए ऐसा कहा करते थे कि विरोचनकुमार बलि जिस दिशा में हों, उस दिशा को भी हमारा नमस्कार है। शचीपते! मुझे अपने इस पतन के लिये तनिक भी शोक नहीं होता है, मेरी बुद्धि का ऐसा निश्चय है कि मैं सदा सबके शासक ईश्वर के वश में हूँ। एक उच्च कुल में उत्पन्न हुआ दर्शनीय एवं प्रतापी पुरुष अपने मन्त्रियों के साथ दु:खपूर्वक जीवन बिताता देखा जाता है, उसका वैसा ही भवितव्य था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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