महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 223 श्लोक 16-30

त्रयोविंशत्‍यधिकद्विशततम (223)अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: त्रयोविंशत्‍यधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 16-30 का हिन्दी अनुवाद

पहले तुम अपने सहस्रों वाहनों और सजातीय बन्‍धुओं से घिरकर सब लोगों को ताप देते और हम देवताओं को कुछ न समझते हुए यात्रा करते थे। सब दैत्‍य तुम्‍हारा मुँह जोहते हुए तुम्‍हारे ही शासन में रहते थे। तुम्‍हारे राज्‍य में पृथ्‍वी बिना जोत-बोये ही अनाज पैदा करती थी। परंतु आज तुम्‍हारे ऊपर यह संकट आ पहुँचा है। इसके लिये तुम शोक करते हो या नहीं? जिस समय तुम समुद्र के पूर्व तट पर विविध भोगों का आस्‍वादन करते हुए निवास करते थे और अपने भाई-बन्‍धुओं को धन बाँटते थे, उस समय तुम्‍हारे मन की अवस्‍था कैसी रही होगी?

तुमने बहुत वर्षों तक राजलक्ष्‍मी से सुशोभित हो विहार में समय बिताया है। उस समय सुवर्ण की सी कान्तिवाली सहस्रों देवांगनाएँ जो सब-की-सब पद्ममालाओं से अंलकृत होती थी, तुम्‍हारे सामने नृत्‍य किया करती थी। दानवराज! उन दिनों तुम्‍हारे मन की क्‍या अवस्‍था थी और अब कैसी है? एक समय था, जबकि तुम्‍हारे ऊपर सोने का बना हुआ रत्‍नभूषित विशाल छत्र तना रहता था और छ: हजार गन्‍धर्व सप्त स्‍वरों में गीत गाते हुए तुम्‍हारे सम्‍मुख अपनी नृत्‍यकला का प्रर्दशन करते थे। यज्ञ करते समय तुम्‍हारे यज्ञमण्‍डप का अत्‍यन्‍त विशाल मध्‍यवर्ती स्‍तम्‍भ पूरा का पूरा सोने का बना होता था। जिस समय तुम निरन्‍तर दस दस करोड़ गौओं का सहस्रों बार दान किया करते थे, दैत्‍यराज! उस समय तुम्‍हारे मन में कैसे विचार उठते रहे होंगे? जब तुमने शम्‍याक्षेप की[1] विधि से यज्ञ करते हुए सारी पृथ्‍वी की परिक्रमा की थी, उस समय तुम्‍हारे हृदय में कितना उत्‍साह रहा होगा? असुरराज! अब तो मैं तुम्‍हारे पास न तो सोने की झारी, न छत्र और न चँवर ही देखता हूँ तथा ब्रह्मा जी की दी हुई वह दिव्‍य माला भी तुम्‍हारे गले में नहीं दिखायी देती है।

भीष्‍म जी कहते हैं- युधिष्ठिर! इन्‍द्र की कही हुई वह भावगम्‍भीर वाणी सुनकर राजा बलि हँस पड़े और देवराज से इस प्रकार बोले। बलि ने कहा- देवेश्‍वर! यहाँ तुमने जो मूर्खता दिखायी है, वह मेरे लिये आश्‍चर्यजनक है। तुम देवताओं के राजा हो। इस तरह दूसरों को कष्ट देने वाली बात कहना तुम्‍हारे लिये योग्‍य नहीं है। इन्‍द्र! इस समय तुम मेरी सोने की झारी को, मेरे छत्र और चँवर को तथा ब्रह्मा जी की दी हुई मेरी उस दिव्‍य माला को भी नहीं देख सकोगे। तुम मेरे जिन रत्‍नों के विषय मे पूछ रहे हो, वे सब गुफा में छिपा दिये गये हैं। जब मेरे लिये अच्‍छा समय आयेगा, तब तुम फिर उन्‍हें देखोगे। इस समय तुम समृद्धिशाली हो और मेरी समृद्धिछिन गयी है, ऐसी अवस्‍था में जो तुम मेरे सामने अपनी प्रशंसा के गीत गाना चाहते हो, यह तुम्‍हारे कुल और यश के अनुरूप नहीं है। जिसकी बु‍द्धि शुद्ध है तथा जो ज्ञान से तृप्‍त है, वे क्षमाशील मनीषी सत्‍पुरुष दु:ख पड़ने पर शोक नहीं करते और समृद्धि प्राप्‍त होने पर हर्ष से फूल नहीं उठते हैं। पुरन्‍दर! तुम अपनी अशुद्ध बुद्धि के कारण मेरे सामने आत्‍मप्रशंसा कर रहे हो। जब मेरी जैसी स्थिति तुम्‍हारी भी हो जायगी, तब ऐसी बात नहीं बोल सकोगे।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्‍तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें बलि और इन्‍द्र का संवाद नामक विषयक दो सौ तेईसवॉ अध्‍याय पूरा हुआ ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. शम्‍याक्षेप कहते हैं शम्‍या पात को। ‘श्‍म्‍या’ एक ऐसे काठ के डंडे को कहते हैं, जिसका निचला भाग मोटा होता है। उसे जब कोई बलवान पुरुष उठाकर फेंके, तब जितनी दूरी पर जाकर वह गिरे, उतने भूभाग को एक ‘शम्‍यापात’ कहते हैं।

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