महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 222 भाग 6

द्वाविंशत्‍यधिकद्विशततम (222) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: द्वाविंशत्‍यधिकद्विशततम अध्याय: भाग 6 का हिन्दी अनुवाद

प्रकृति और उसके कार्यों के प्रति मेरे मन में न तो राग है, न द्वेष। मैं किसी को न अपना द्वेषी समझता हूँ और न आत्‍मीय ही मानता हूँ। इन्‍द्र! मुझे ऊपर (स्‍वर्ग की), नीचे (पाताल की) तथा बीच लोक (मर्त्‍यलोक) की भी कभी कामना नहीं होती। ज्ञान विज्ञान और ज्ञेय की निमित्‍त भी मेरे लिये कोई कर्म आवश्‍यक नहीं है।


इन्‍द्र ने कहा- प्रह्लाद जी! जिस उपाय से ऐसी बुद्धि और इस तरह की शान्ति प्राप्‍त होती है, उसे पूछता हूँ। आप मुझे अच्‍छी तरह उसे बताइये।

प्रह्लाद ने कहा- इन्‍द्र! सरलता, सावधानी, बुद्धि की निर्मलता, चित्‍त की स्थिरता तथा बड़े बूढ़ों की सेवा करने से पुरुष को महत पद की प्राप्ति होती है। इन गुणों को अपनाने पर स्‍वभाव में ज्ञान प्राप्‍त होता है, स्‍वभाव से ही शान्ति मिलती है तथा जो कुछ भी तुम देख रहे हो, सब स्‍वभाव से ही प्राप्‍त होता है। राजन! दैत्‍यराज प्रह्लाद के इस प्रकार कहने पर इन्‍द्र को बड़ा विस्‍मय हुआ। उन्‍होंने बहुत प्रसन्‍न होकर उनके वचनों की प्रशंसा की। इतना ही नही, त्रिलोकीनाथ देवेश्‍वर इन्‍द्र ने उस समय दैत्‍यों और असुरों के स्‍वामी पह्लाद का पूजन किया और उनकी आज्ञा लेकर वे अपने निवास स्‍थान स्‍वर्गलोक को चले गये।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्‍तर्गत मोक्षधर्मपर्व में इन्‍द्र और प्रहलाद का संवादनामक विषयक दो सौ बाईसवॉ अध्‍याय पूरा हुआ ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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