विंशत्यधिकद्विशततम (220) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: विंशत्यधिकद्विशततम अध्याय: भाग 4 का हिन्दी अनुवाद
तब सुवर्चला ने अपने महात्मा पति से कहा- नाथ! मैं हृदय गुफा में शयन करने वाले आत्मा को पूछती हूँ। यह सुनकर श्वेतकेतु ने उससे कहा- ‘भामिनि! वह तो कुछ कहेगा नहीं। यदि तुम आत्मा को नाम और गोत्र से युक्त मानती हो तो यह तुम्हारी मिथ्या धारणा है; क्योंकि नाम-गोत्र होने पर देह का बन्धन प्राप्त होता है। ‘आत्मामें अहम् (मैं हूँ) यह भाव स्थापित किया गया है। तुममें भी वही भाव है। तुम भी अहम्, मैं भी अहम् और यह सब अहम् का ही रूप है। इसमें वह परमार्थतत्त्व नहीं है; फिर किस लिये पूछती हो?’ नरेश्वर! तब धर्मचारिणी पत्नी सुवर्चला बहुत प्रसन्न हुई, उसने हँसकर मुस्कराते हुए यह समयोचित्त वचन कहा। सुवर्चला बोली- ब्रह्मर्षे! अनेक प्रकार के विरोध से क्या प्रयोजन? सदा इस नाना प्रकार के क्रिया कलाप में पड़कर आपका ज्ञान लुप्त होता जा रहा है। अत: महाप्राज्ञ! आप मुझे इसका कारण बताइये, क्योंकि मैं आपका अनुसरण करने वाली हूँ। श्वेतकेतु ने कहा- प्रिये! श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करता है, वही दूसरे लोग भी करते हैं; अत: हमारे कर्म त्याग देने से यह सारा जनसमुदाय संकरता के दोष से दूषित हो जायगा। इस प्रकार धर्म में संकीर्णता आने पर प्रजा में वर्ण संकरता फैल जाती है और संकरता फैल जाने पर सर्वत्र मात्स्य न्याय की प्रवृत्ति हो जाती है (जैसे प्रबल मत्स्य दुर्बल मत्स्य को निगल जाते हैं, उसी प्रकार बलवान मनुष्य दुर्बलों को सताने लगते हैं।) भद्रे! सम्पूर्ण जगत का भरण-पोषण करने वाले परमात्मा श्रीहरि को यह अभीष्ट नहीं है। शुभे! जगत की यह सारी सृष्टि परमेश्वर की क्रीड़ा है। धूलि के जितने कण हैं, उतनी ही परमेश्वर श्रीहरि की विभूतियाँ हैं, उतनी ही उनकी मायाएँ हैं और उतनी ही उन मायाओं की शक्तियाँ भी हैं। स्वयं भगवान नारायण का कथन है कि ‘जो मुक्तिलाभ के लिये उद्योगशील पुरुष अत्यन्त गहन गुफा में रहकर ज्ञानरूप खड्ग के द्वारा जन्म-मृत्यु के बन्धन को काटकर मेरे धाम को चला जाता है, वही विद्वान है और वही मुझे प्रिय है। वह योगी पुरुष मैं ही हूँ। इसमें संदेह नहीं है’ यह भगवान की प्रतिज्ञा है। ‘जो मूढ़, दुरात्मा, धर्मसंकरता उत्पन्न करने वाले, मर्यादाभेदक और नीच मनुष्य हैं, वे नरक में गिरते हैं और आसुरी योनि में पड़ते हैं, यह भी उन्हीं भगवान का अनुशासन है’। देवि! तुम्हें भी जगत की रक्षा के लिये लोकमर्यादा का पालन करना चाहिये। इसमें संशय नहीं है। मैं भी इसी भाव से लोक मर्यादा की रक्षा में स्थित हूँ। सुवर्चला ने पूछा- महामुने! यहाँ शब्द किसे कहा गया है और अर्थ भी क्या है? आप उन दोनों की आकृति और लक्षण का निर्देश करते हुए उनका पृथक्-पृथक् वर्णन कीजिये। अकार आदि वर्णो के समुदाय को क्रम या व्यतिक्रम से उच्चारण करने पर जो वस्तु प्रकाशित होती है, उसे ‘शब्द’ जानना चाहिये और उस शब्द से जिस अभिप्राय की प्रतीति हो, उसका नाम ‘अर्थ’ है। सुवर्चला बोली- यदि शब्द के होने पर ही अर्थ की प्रतीति होती है तो इन शब्द और अर्थ में कोई सम्बन्ध है या नहीं? यह आप मुझे यथार्थरूप से बतावें। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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