महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 220 भाग 2

विंशत्‍यधिकद्विशततम (220) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

Prev.png

महाभारत: शान्ति पर्व: विंशत्‍यधिकद्विशततम अध्याय: भाग 1 का हिन्दी अनुवाद

बेटी! ये मुनि जो यहाँ पधारे हैं, वेद-वेदांगों से सम्‍पन्‍न, कुलीन और शीलवान हैं। ये मेरे लिये अपने पुत्र के समान प्रिय हैं। भद्रे! इन लोगों में से तुम जिस महान व्रतधारी ऋषिकुमार को पति बनाना चाहो, उसे आज चुन लो, शुभे! मैं उसी के साथ तुम्‍हारा विवाह कर दूँगा’। तब ‘तथास्‍तु’ कहकर तपाये हुए सुवर्ण के समान कान्तिवाली, समस्‍त शुभलक्षणों से सम्‍पन्‍न, यशस्विनी, कल्‍याणमयी सुवर्चला ब्राह्मणों के उस समुदाय को देखकर सम्‍पूर्ण तपोधनों को प्रणाम करके इस प्रकार बोली।

सुवर्चला ने कहा- इस ब्राह्मण सभा में वही मेरा पति हो सकता है, जो अन्‍धा हो और अन्‍धा न भी हो। उस कन्‍या की यह बात सुनकर सब मुनि एक-दूसरे का मुँह देखने लगे। वे महाभाग ब्राह्मण उस कन्‍या को अबोध जानकर कुछ बोले नहीं। नाना देशों में निवास करने वाले श्रेष्ठ मुनि कुपित हो मन-ही-मन देवल ऋषि की निन्‍दा करते हुए जैसे आये थे, वैसे ही लौट गये और वह मानिनी कन्‍या वहाँ पिता के ही घर में रह गयी। तदनन्‍तर किसी समय विद्वान, ब्राह्मणभक्‍त, न्‍यायविशारद, ऊहापोह करने में कुशल, ब्रह्मचर्य से सम्‍पन्‍न, वेदवेत्‍ता, वेदतत्‍वज्ञ, कर्मकाण्‍डविशारद, आत्‍मतत्‍व को विवेकपूर्वक जानने वाले, जीवित पितावाले तथा सद्गुणों के सागर श्‍वेतकेतु ऋषि सारा वृतान्‍त सुनकर उस कन्‍या को प्राप्‍त करने के लिये शीघ्रतापूर्वक आदरसहित देवल ऋषि के आश्रम पर आये।

उद्दालक के पुत्र महान व्रतधारी श्‍वेतकेतु को आया देख देवल ने उनकी यथायोग्‍य पूजा करके अपनी पुत्री से कहा। ‘महान सौभाग्‍यशालिनी कन्‍ये! ये ऋषिकुमार श्‍वेतकेतु पधारे हैं। ये बड़े भारी पण्डित और वेद-वेदांगों के पांरगत विद्वान हैं। तुम इनका वरण कर लो’। पिता की यह बात सुनकर कन्‍या ने कुपित हो ऋषिकुमार श्‍वेतकेतु की ओर देखा। तब ब्रह्मषि श्‍वेतकेतु ने उस कन्‍या से कहा- ‘भद्रे! मैं वही हूँ (जिसे तुम चाहती हो), तुम्‍हारे लिये ही यहाँ आया हूँ। ‘मैं अन्‍ध हूँ, यह यथार्थ है। मैं अपने मन में सदा ऐसा ही मानता भी हूँ। साथ ही मैं संदेहरहित होने के कारण विशाल नेत्रों से युक्‍तभी हूँ। ऐसा ही तुम मुझे समझो। श्रेष्ठ अंगोवाली अनिन्‍द्य सुन्‍दरी! तुम मुझे अंगीकार करो। मैं तुम्‍हारी अभीष्ट सिद्धि करूँगा। ‘जिस परमात्‍मा की शक्ति से जीवात्‍मा सदा यह सब कुछ देखता है, ग्रहण करता है, स्‍पर्श करता है, सॅूघता है, बोलता है, निरन्‍तर विभिन्‍न वस्‍तुओं का स्‍वाद लेता है, तत्‍व का मनन करता और बुद्धि द्वारा निश्‍चय करता है, वह परमात्‍मा ही चक्षु[1] कहलाता है। जो इस चक्षु से रहित है, वही प्राणियों में अन्‍धा कहलाता है (और परमात्‍मारूपी चक्षु से युक्‍त होने के कारण मैं अनन्‍ध- नेत्रवाला भी हूँ ‘जिस परमात्‍मा के भीतर ही यह सम्‍पूर्ण जत व्‍यवहार में प्रवृत्‍त होता है। यह जगत जिस आँख से देखता, कान से सुनता, त्‍वचा से स्‍पर्श करता, नासिका से सूँघता, रसना से रस लाता एवं जिस लौकिक चक्षु से यह सारा बर्ताव करता है, उससे मेरा कोई सम्‍बन्‍ध नहीं है, इसलिये मैं अन्‍ध हूँ; अत: भद्रे! तम मेरा वरण करो। ‘मैं लोकसंग्रह की दृष्टि से ही यहाँ नित्‍य-नैमित्तिक आदि कर्म करता हूँ तथा नित्‍य आत्‍मदृष्टि रखने के कारण उन सब कर्मों से लिप्‍त नहीं होता हूँ।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. चष्‍टे इति चक्षु: -जो देखता है, वह चक्षु है।इस व्‍युत्‍पत्ति के अनुसार सर्वद्रष्‍टा परमात्‍मा ही चक्षु: पद का वाच्‍यार्थ है।

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः