महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 219 श्लोक 16-31

एकोनविंशत्यधिकद्विशततम (219) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: एकोनविंशत्यधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 16-31 का हिन्दी अनुवाद

अब मैं उस परम उत्‍तम सांख्‍यशास्त्र का वर्णन करता हूँ, जिसका नाम है सम्‍यग्‍वध (सम्‍यग्रूपेण दु:खों का नाश करने वाला) उसमें त्‍याग की प्रधानता है। तुम ध्‍यान देकर सुनो। उसका उपदेश तुम्‍हारे लिये मोक्षदायक होगा। जो लोग मुक्ति के लिये प्रयत्‍नशील हों, उन सबको चाहिये कि सम्‍पूर्ण कर्मों में अहंता, ममता, आसक्ति और कामना का त्‍याग करे। जो इनका त्‍याग किये बिना ही विनीत (शम, दम आदि साधनों में तत्‍पर) होने का झूठा दावा करते हैं, उन्‍हें अविद्या आदि दु:खदायी क्‍लेश प्राप्‍त होते हैं। शास्त्रों में द्रव्‍य का त्‍याग करने के लिये यज्ञ आदि कर्म, भोग का त्‍याग करने के लिये व्रत, दैहिक सुखों के त्‍याग के लिये तप और सब कुछ (अहंता, ममता, आसक्ति, कामना आदि) त्‍याग देने के लिये योग के अनुष्ठान की आज्ञा दी गयी है। यही त्‍याग की चरम सीमा हैं। सर्वस्‍व-त्‍याग का यह एकमात्र मार्ग ही दु:खों से छुटकारा पाने के लिये उत्‍तम बताया गया है, इसके विपरीत आचरण करने वालों को दुर्गति भोगनी पड़ती है।

बुद्धि में स्थित मन सहित पाँच ज्ञानेन्द्रियों का वर्णन करके अब पाँच कर्मेन्द्रियों का वर्णन करूँगा। जिनके साथ प्राणशक्ति छठी बतायी गयी है। दोनों हाथों को काम करने वाली इन्द्रिय जानना चाहिये, दोनों पैर चलने फिरने का काम करने वाली इन्द्रिय है। लिंग संतानोत्‍पादन एवं मैथुनजनित आनन्‍द की प्राप्ति करने के लिये है। गुदनामक इन्द्रिय कार्य मल-त्‍याग करना है। वाक्-इन्द्रिय शब्‍द विशेष का उच्‍चारण करने के लिये है। इस प्रकार पाँच कर्मेन्द्रियों को पाँच विषयों से युक्‍त माना गया है। मनसहित एकादश इन्द्रियों के विषयों का बुद्धि के द्वारा शीघ्र त्‍याग कर देना चाहिये। श्रवण काल में श्रोत्ररूपी इन्द्रिय, शब्‍दरूपी विषय और चित्‍तरूपी कर्ता इन तीनों का संयोग होता है, इसी प्रकार स्‍पर्श, रूप, रस तथा गन्‍ध के अनुभव काल में भी इन्द्रिय, विषय एवं मन का संयोग अपेक्षित है। इस प्रकार ये तीन-तीन के पाँच समुदाय हैं, ये सब गुण कहे गये हैं। इनसे शब्‍दादि विषयों का ग्रहण होता है, जिससे ये कर्ता, कर्म और करणरूपी त्रिविध भाव बारी-बारी से उपस्थित होते हैं। इनमें से एक-एक सात्त्विक, राजस और तामस तीन-तीन भेद होते हैं। उनसे प्राप्‍त होने वाले अनुभव भी तीन प्रकार के ही हैं। जो हर्ष, प्रीति, आदि सभी भावों के साधक हैं। हर्ष, प्रीति, आनन्‍द, सुख और चित्‍त की शान्ति ये सब भाव बिना किसी कारण के स्‍वत: हों या कारणवश ( भक्ति, ज्ञान, वैराग्‍य, सत्‍संग आदि के कारण) हों, सात्त्विक गुण माने गये हैं। असंतोष, संताप, शोक, लोभ और असहनशीलता ये किसी कारण से हों या अकारण रजोगुण के चिन्‍ह हैं। अविवेक, मोह, प्रमाद, स्‍वप्‍न और आलस्‍य-ये किसी तरह भी क्‍यों न हों, तमोगुण के ही विविध रूप हैं। इनमें जो शरीर या मन में प्रीति के संयोग से उदित हो, वह सात्त्विक भाव है और उसको सत्‍वगुण की वृद्धि जाननी चाहिये। जो अपने लिये असंतोषजनक एवं अप्रीतिकर हो, उसको रजोगुण की प्रवृत्ति एवं अभिवृद्धि समझनी चाहिये। शरीर या मन में जो अतर्क्‍य, अज्ञेय एवं मोह संयुक्‍त भाव प्रादुर्भूत हो, उसको तमोगुणजनित जानना चाहिये।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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