पचदशाधिकद्विशततम (215) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: पचदशाधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 15-27 का हिन्दी अनुवाद
जैसे चोर या डाकू जब उस चोरी के माल का बोझ उतार फेंकता है तब जहाँ उसे सुख मिलने की आशा होती है, उस दिशा में अनायास चला जाता है। उसी प्रकार मनुष्य राजस और तामस कर्मो को त्यागकर शुभ गति प्राप्त कर लेता है। जो सब प्रकार के संग्रह से रहित, निरीह, एकान्तवासी, अल्पाहारी, तपस्वी और जितेन्द्रिय है, जिसके सम्पूर्ण क्लेश ज्ञानाग्नि से दग्ध हो गये हैं; तथा जो योगानुष्ठान का प्रेमी और मन को वश में रखने वाला है, वह अपने निश्चल चित्त के द्वारा उस परब्रह्म परमात्मा को नि:संदेह प्राप्त कर लेता है। बुद्धिमान एवं धीर पुरुष को चाहिये कि वह बुद्धि को निश्चय ही अपने वश में करे; फिर बुद्धि के द्वारा मन को और मन के द्वारा अपनी इन्द्रियों को विषयों की ओर से रोककर अपने अधीन करे। इस प्रकार जिसने इन्द्रियों को वश में मन को अपने अधीन कर लिया है, उस अवस्था में उसकी इन्द्रियों के अधिष्ठातृ देवता प्रसन्नता से प्रकाशित होने लगते हैं; और ईश्वर की और प्रवृत्त हो जाते हैं। उन इन्द्रिय देवताओं से जिसका मन संयुक्त हो गया है, उसके अन्त:करण में परब्रह्मा परमात्मा प्रकाशित हो उठता है; फिर धीरे-धीरे सत्वगुण प्राप्त होने पर वह मनुष्य ब्रह्मभाव को प्राप्त हो जाता है। अथवा यदि पूर्वोक्तरूप से उसके भीतर ब्रह्मा प्रकाशित न हो तो वह योगी योगप्रधान उपायों द्वारा अभ्यास आरम्भ करे। जिस हेतु से योगाभ्यास करते हुए योगी की ब्रह्मा में ही स्थित हो, वह उसी-उसी का अनुष्ठान करे। अन्न के दाने, उड़द, तिल की खली, साग, जौकी लप्सी, सत्तू, मूल और फल जो कुछ भी भिक्षा में मिल जाय, क्रमश: उसी अन्न से योगी अपने जीवन निर्वाह करे। देश और काल के अनुसार सात्त्विक आहार ग्रहण करने का नियम रखे। उस आहार के दोष-गुण की परीक्षा करके यदि वह योगसिद्धि के अनुकूल हो तो उसे उपयोग में ले। साधन आरम्भ कर देने पर उसे बीच में न रोके। जैसे आग धीरे-धीरे तेज की जाती है, उसी प्रकार ज्ञान के साधन को शनै:-शनै: उद्दीपित करे। ऐसा करने से ज्ञान सूर्य के समान प्रकाशित होने लगता है। अज्ञान का अधिष्ठान भी ज्ञान ही है जो तीनों लोकों में व्याप्त है। अज्ञान के द्वारा विज्ञानयुक्त ज्ञान का हास होता है। शास्त्रों मे कहीं जीवात्मा और परमात्मा की पृथक्ता का प्रतिपादन करने वाले वचन उपलब्ध होते हैं और कहीं उनकी एकता का यह परस्पर विरोध देखकर दोषदृष्टि न करते हुए सनातन ज्ञान को प्राप्त करे। जो उन दोनों प्रकार के वचनों का तात्पर्य समझकर मोक्ष के तत्व को जान लेता हैं, वह वीतराग पुरुष संसार बन्धन से मुक्त हो जाता है। ऐसा पुरुष जरा और मृत्यु का उल्लंघन कर सनातन ब्रह्म को जानकर उस अक्षर, अविकारी एवं अमृत ब्रह्म को प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें श्रीकृष्ण सम्बन्धी अध्यात्म तत्व का वर्णनविषयक दो सौ पंद्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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