महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 209 भाग 3

नवाधिकद्विशततम (209) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: नवाधिकद्विशततम अध्याय: 209 भाग 3 का हिन्दी अनुवाद

भीष्‍म जी ने कहा – राजन्! निष्‍पाप नरेश! तुमने जो प्रश्‍न उपस्थित किया है, वह उत्‍तम युक्तियुक्‍त और सूक्ष्‍म है।उसे सावधान होकर सुनो। जो पूर्वकाल में मैंने नारदजी से सुना था, वही मैं तुमसे कहता हूँ। जिनका वक्ष:स्‍थल श्रीवत्‍सचिन्‍ह से सुशोभित हैं, जो इस जगत् के बीज (मूल कारण) हैं, जिनका कहीं अन्‍त नहीं है तथा जो इस जगत् के साक्षी हैं, उन्‍हीं भगवान नारायण ने पूर्वकाल में नारदजी ने इस प्रकार प्रश्‍न किया।

नारद जी ने पूछा – भगवन्! महिर्षगण कहते हैं, आप अविनाशी (नित्‍य) परब्रह्मा, निर्गुण, अज्ञानान्‍धकार एवं तमोगुण अतीत, विद्या के अधिपति, परम धामस्‍वरूप, ब्रह्मा तथा उनकी प्राकट्यभूमि- आदि कमल के उत्‍पत्ति स्‍थान हैं। भूत और भविष्‍य के स्‍वामी परमेश्‍वर! श्रद्धालु और जितेन्द्रिय भक्‍तों तथा मोक्ष की अभिलाषा रखने वाले योगियों को आपके स्‍वरूप का किस प्रकार चिन्‍तन करना चाहिये ? मनुष्‍य प्रतिदिन सबेरे उठकर किस जपनीय मन्‍त्र का जप करे और योगी पुरुष किस प्रकार निरन्‍तर ध्‍यान करे? आप इस सनातन तत्‍व का वर्णन कीजिये। देवर्षि नारद का यह वचन सुनकर वाणी के अधिपति वरदायक भगवान विष्‍णु ने नारदजी से इस प्रकार कहा।

श्री भगवान बोले – देवर्षे! मैं हर्षपूर्वक तुम्‍हारे सामने इस दिव्‍य अनुस्‍मृति का वर्णन करता हूँ। मृत्‍युकाल में जिसका अध्‍ययन और श्रवण करके मनुष्‍य मेरे स्‍वरूप को प्राप्‍त हो जाता है। नारद! आदि में ओंकार का उच्‍चारण करके मुझे नमस्‍कार करे। अर्थात् एकाग्र एवं पवित्रचित होकर इस मन्‍त्र का उच्‍चारण करें –‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’ इति। भगवान के ऐसा कहने पर नारदजी हाथ जोड़ प्रणाम करके खड़े हो गये और उन सर्वदेवेश्‍वर सर्वात्‍मा एवं पापहारी प्रभु श्रीविष्‍णु से बोले।

नारदजी ने कहा – प्रभो! जो अव्‍यक्‍त सनातन देवता, सबकी उत्‍पत्ति के कारण, पुरुषोतम, अविनाशी और परम पदस्‍वरूप हैं, उन भगवान विष्‍णु की मैं हाथ जोड़कर शरण लेता हूँ। जो पुराणपुरुष, सबकी उत्‍पत्ति के कारण अक्षय और सम्‍पूर्ण साक्षी हैं, जिनके नेत्र कमल के समान सुन्‍दर हैं, उन भक्‍तवत्‍सल भगवान विष्‍णु की मैं शरण लेता हूँ। जो सम्‍पूर्ण लोकों के स्‍वामी तथा संरक्षक हैं, जिनके सहस्‍त्रों नेत्र है; तथा जो भूत, भविष्‍य और वर्तमान के स्‍वामी हैं, उन अद्भुत इन्द्रियों के स्‍वामी भगवान पद्मनाभ की मैं शरण लेता हूँ। जो हिरण्‍यगर्भ, अमृतस्‍वरूप, पृथ्‍वी को गर्भ में धारण करने वाले, परात्‍पर तथा प्रभुओं के भी प्रभु हैं, उन अनादि, अनन्‍त तथा सूर्य के समान कान्तिवाले भगवान श्रीहरि की मैं शरण लेता हूँ। जिनके सहस्‍त्रों मस्‍तक हैं, जो अन्‍तर्यामी आत्‍मा हैं, तत्‍वों का चिन्‍तन करने वाले महर्षि कपिलस्‍वरूप हैं, उन सूक्ष्‍म, अचल, वरेण्‍य और अभयप्रद भगवान श्रीहरि की शरण लेता हूँ।

जो पुरातन ऋषि नारायण हैं, योगात्‍मा हैं, सनातन पुरुष हैं, सम्‍पूर्ण तत्‍वों के अधिष्‍ठान एवं अविनाशी ईश्‍वर हैं, उन भगवान श्रीहरि की मैं शरण लेता हूँ। जो सम्‍पूर्ण भूतों के प्रभु हैं, जिन्‍होंने इस समस्‍त संसार को व्‍याप्‍त कर रखा है; तथा जो चर और अचर प्राणियों के गुरु हैं, वे भगवान विष्‍णु मुझ पर प्रसन्‍न हों। जिनसे पदम् योनि पितामह ब्रह्मा की उत्‍पत्ति होती हैं; तथा जो वेद और ब्राह्मणों की योनि हैं, वे विश्‍वात्‍मा विष्‍णु मुझ पर प्रसन्‍न हों। प्राचीनकाल में महाप्रलय प्राप्‍त होनेपर जब सभी चराचर प्राणी नष्‍ट हो जाते हैं, ब्रह्मा आदि देवताओं का भी लय हो जाता है और संसार की छोटी-बड़ी सभी वस्‍तुएँ लुप्‍त हो जाती है; तथा सम्‍पूर्ण भूतों का क्रमश: लय होकर जब प्रकृति में महतत्‍व भी विलीन हो जाता हैं, उस समय जो एकमात्र शेष रह जाते हैं, वे विश्‍वात्‍मा विष्‍णु मुझ पर प्रसन्‍न हों। चार[1], चार[2], दो[3], पाँच[4] तथा दो[5] – इन सत्रह अक्षरों वाले मन्‍त्रों द्वारा जिन्‍हें आहुति दी जाती हैं, वे भगवान विष्‍णु मुझ पर प्रसन्‍न हो।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. आश्रावय
  2. अस्‍तु श्रौषट्
  3. यज
  4. ये यजामहे
  5. वषट्

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