षडधिकद्विशतत (206) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: षडधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 17-28 का हिन्दी अनुवाद
किंतु परब्रह्म परमात्मा इस प्रकार शरीर का आश्रय लेकर प्रकट होने पर भी वेदाध्ययन की भाँति यत्नसाध्य नहीं है; क्योंकि उनका आदि, मध्य और अन्त नहीं है। वही ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद का आदि कहलाता है। जिनका कोई आदि होता है, उन पदार्थों का अन्त होता देखा गया है। ब्रह्म का कोई भी आदि नहीं बताया गया है। वह अनादि और अनन्त होने के कारण अक्षय और अविनाशी है। अविनाशी होने से ही दु:खरहित है। उसमें हर्ष और शोक आदि द्वन्द्वों का अभाव है; अत: वह सबसे परे है। परंतु दुर्भाग्य, साधनहीनता और कर्मफलविषयक आसक्ति के कारण जिससे परमात्मा की प्राप्ति होती है, मनुष्य उस मार्ग का दर्शन नहीं कर पाते हैं। मनुष्यों की विषयों में आसक्ति है; क्योंकि विषय सुख सदा रहने वाले हैं; ऐसी उनकी भावना है तथा वे अपने मन से सांसरिक पदार्थों को पाने की इच्छा रखते हैं; इसलिये उन्हें परब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति नहीं होती है। संसारी मनुष्य इस संसार में जिन-जिन विषयों को देखते हैं, उन्हीं को पाना चाहते हैं। सर्वश्रेष्ठ परब्रह्म परमात्मा हैं, उन्हें पाने के लिये उनके मन में इच्छा नहीं होती है; क्योंकि वे गुणार्थी (विषयाभिलाषी) होते हैं और परमात्मा निर्गुण (गुणातीत) हैं। भला, जो इन तुच्छ विषयों में फँसा हुआ है, वह परमदिव्य गुणों को कैसे जान सकता हैं? जैसे धूम से अग्नि का अनुमान होता है, उसी प्रकार नित्यत्व आदि स्वरूपभूत दिव्य गुणों द्वारा परब्रह्म परमात्मा के स्वरूप का दिग्दर्शन हो सकता है। हम ध्यान द्वारा शुद्ध और सूक्ष्म हुए मन से परमात्मा के स्वरूप का अनुभव तो कर सकते हैं, किंतु वाणी द्वारा उसका वर्णन नहीं कर सकते; क्योंकि मन के द्वारा ही मानसिक विषय का ग्रहण हो सकता है और ज्ञान के द्वारा ही ज्ञेय को जाना जा सकता है। इसलिये ज्ञान के द्वारा बुद्धि को, बुद्धि के द्वारा मन को तथा मन के द्वारा इन्द्रिय-समुदाय को निर्मल एवं शुद्ध करके अविनाशी परमात्मा को प्राप्त किया जा सकता है। बुद्धि में प्रवीण अर्थात विशुद्ध और सूक्ष्म बुद्धि से सम्पन्न एवं मानसिक बल से युक्त हुआ पुरुष, समस्त इच्छा से अतीत निर्गुण ब्रह्म को प्राप्त होता है। जैसे वायु काठ में रहने वाले अदृश्य अग्नि को बिना प्रज्वलित किये ही छोड़ देता है, वैसे ही कामनाओं से विकल हुए पुरुष भी अपने शरीर के भीतर स्थित परमात्मा का त्याग कर देते हैं अर्थात उसे जानने और पाने की चेष्टा नहीं करते। जब साधक साधनरूप गुणों को धारण कर लेता हैं और उन सांसारिक पदार्थों से मन को हटा लेता है, तब उसका मन बुद्धिजन्य अच्छे-बुरे भावों से रहित होकर निरन्तर निर्मल रहता है। इस प्रकार साधन में लगा साधक जब गुणों से अतीत हो जाता है, तब ब्रह्म के स्वरूप का साक्षात् कर लेता है। पुरुष का आत्मा (वास्तविक स्वरूप) अव्यक्त है और उसके कर्म शरीररूप में व्यक्त हैं। अत: वह अन्तकाल में अव्यक्त भाव को प्राप्त हो जाता है। परंतु कामनाओं से तद्रूप हुआ वह जीव उन बढ़ी हुई विषय प्रबल इन्द्रियों से युक्त होकर पुन: संसार में आ जाता हैं अर्थात पुन: शरीर को धारण कर लेता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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