एकोनविंश (19) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: एकोनविंश अध्याय: श्लोक 17-26 का हिन्दी अनुवाद
अर्जुन! इस प्रकार सूक्ष्म बुद्धि से जानने योग्य एवं साधु पुरुषों से सेवित इस उत्तम मार्ग के रहते हुए तुम अनर्थों से मरे हुए अर्थ (धन) की प्रशंसा कैसे करते हो? भरतनन्दन! दान, यज्ञ तथा अतिथि सेवा आदि अन्य कर्मों में नित्य लगे रहने वाले प्राचीन शास्त्र भी इस विषय में ऐसी ही दृष्टि रखते हैं। कुछ तर्कवादी पण्डित भी अपने पूर्वजन्म के दृढ़ संस्कारों से प्रभावित होकर ऐसे मूढ़ हो जाते हैं कि उन्हें शास्त्र के सिद्धान्त को ग्रहण कराना अत्यन्त कठिन हो जाता है। वे आग्रहपूर्वक यही कहते रहते हैं कि 'यह (आत्मा, धर्म, परलोक, मर्यादा आदि) कुछ नहीं है’। किंतु बहुत से ऐसे बहुश्रुत, बोलने में चतुर और विद्वान् भी हैं, जो जनता की सभा में व्याख्यान देते और उपर्युक्त असत्य मत का खण्डन करते हुए सारी पृथ्वी पर विचरते रहते हैं। पार्थ! जिन विद्वानों को हम नहीं जान पाते हैं, उन्हें कोई साधारण मनुष्य कैसे जान सकता है? इस प्रकार शास्त्रों के अच्छे-अच्छे ज्ञाता एवं महान् विद्वान् सुनने में आये हैं (जिनको पहचानना बड़ा कठिन है)। कुन्तीनन्दन! तत्त्ववेत्ता पुरुष तपस्या द्वारा महान् पद को प्राप्त कर लेता है, और स्वार्थ त्याग के द्वारा सदा नित्य सुख का अनुभव करता रहता है।
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासन पर्व में युधिष्ठिरवाक्य-विषयक उन्नीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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