नवनवत्यधिकशततम (199) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: नवनवत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 35-51 का हिन्दी अनुवाद
इसी समय तीर्थयात्रा के लिये आये हुए राजा इक्ष्वाकु भी उस स्थान पर आ पहुँचे, जहाँ वे सब लोग एकत्र हुए थे। नृपश्रेष्ठ राजर्षि इक्ष्वाकु ने उन सबकों प्रणाम करके उनकी पूजा की और उन सबका कुशल समाचार पूछा। ब्राह्मण ने भी राजा को अर्घ्य, पाद्य और आसन देकर कुशल-मंगल पूछने के बाद इस प्रकार कहा। 'महाराज! आपका स्वागत है! आपकी जो इच्छा हो, उसे यहाँ बताइये। मैं अपनी शक्ति के अनुसार आपकी क्या सेवा करूँ? यह आप मुझे बतावें'। राजा ने कहा- विप्रवर! मैं क्षत्रिय राजा हूँ और आप छ: कर्मो में स्थित रहने वाले ब्राह्मण। अत: मैं आपको कुछ धन देता चाहता हूँ। आप प्रसिद्ध धनरत्न मुझसे माँगिये। ब्राह्मण ने कहा- राजन! ब्राह्मण दो प्रकार के होते हैं और धर्म भी दो प्रकार का माना गया है- प्रवृति और निवृति। मैं प्रतिग्रह से निवृत ब्राह्मण हूँ। नरेश्वर! आप उन ब्राह्मणों को दान दीजिये, जो प्रवृत्तिमार्ग में हों। मैं आपसे दान नही लूँगा! नृपश्रेष्ठ! इस समय आपको क्या अभीष्ट है? मैं आपको क्या दूँ? बताइये, मैं अपनी तपस्या द्वारा आपका कौन-सा कार्य सिद्ध करूँ? राजा बोले- द्विजश्रेष्ठ! मैं क्षत्रिय हूँ। ‘दीजिये’ ऐसा कहकर याचना करने की बात को कभी नहीं जानता। माँगने के नाम पर हमलोग यही कहना जानते हैं कि ‘युद्ध दो'। ब्राह्मण ने कहा- नरेश्वर! जैसे आप अपने धर्म से संतुष्ट हैं, उसी तरह हम भी अपने धर्म से संतुष्ट हैं। हम दोनों में कोई अन्तर नहीं है। अत: आपको जो अच्छा लगे, वह कीजिये। राजा ने कहा- ब्रह्मन! आपने मुझसे पहले कहा है कि ‘मैं अपनी शक्ति के अनुसार दान दूँगा’ तो मैं आपसे यही माँगता हूँ कि आप अपने जप का फल मुझे दे दीजिये। ब्राह्मण ने कहा- राजन! आप तो बहुत बढ़-बढ़कर बातें बना रहे थे कि मेरी वाणी सदा युद्ध की ही याचना करती है। तब आप मेरे साथ भी युद्ध की ही याचना क्यों नहीं कर रहे हैं। राजा ने कहा- विप्रवर! ब्राह्मणों की वाणी ही वज्र के समान प्रभाव डालने वाली होती है और क्षत्रिय बाहुबल से जीवन-निर्वाह करने वाले होते हैं। अत: आपके साथ मेरा यह तीव्र वाग्युद्ध उपस्थित हुआ है। ब्राह्मण ने कहा- राजेन्द्र! मेरी वही प्रतिज्ञा इस समय भी हैं। मैं अपनी शक्ति के अनुसार आपको क्या दूँ? बोलिये, विलम्ब न कीजिये। मैं शक्ति रहते आपको मुँह माँगी वस्तु अवश्य प्रदान करूँगा। राजा ने कहा- मुने! यदि आप देना ही चाहते है तो पूरे सौ वर्षों तक जप करके आपने जिस फल को प्राप्त किया हैं, वही मुझे दे दीजिये। ब्राह्मण ने कहा- राजन! मैंने जो जप किया है उसका उत्तम फल आप ग्रहण करें। मेरे जप का आधा फल तो आप बिना विचारे ही प्राप्त करें अथवा यदि आप मेरे द्वारा किये हुए जप का सारा ही फल लेना चाहते हों तो अवश्य अपनी इच्छा के अनुसार वह सब प्राप्त कर लें। राजा ने कहा- ब्रह्मन! मैंने जो जप का फल माँगा है, उन सबकी पूर्ति हो गयी। आपका भला हो, कल्याण हो। मैं चला जाऊँगा; किंतु यह तो बता दीजिये कि उसका फल क्या है? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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