महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 196 श्लोक 17-23

षण्‍णवत्‍यधिकशततम (196) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: षण्‍णवत्‍यधिकशततम अध्याय: श्लोक 17-23 का हिन्दी अनुवाद

संहिता के जप से जो बल प्राप्‍त होता है, उसका आश्रय लेकर साधक अपने ध्‍यान को सिद्ध कर लेता है। वह शुद्धचित्त होकर तप के द्वारा मन और इन्द्रियों को जीत लेता है तथा द्वेष और कामना से रहित एवं आसक्ति और मोह से रहित हुआ शीत और उष्‍ण आदि समस्‍त द्वन्‍द्वों से अतीत हो जाता है। अत: वह न तो कभी शोक करता है और न कही भी आसक्‍त होता है। वह कर्मो का कारण और कार्य का कर्ता नहीं होता (अर्थात् अपने में कर्ता पन का अभिमान नहीं लाता है)।

वह अहंकार से युक्‍त होकर कहीं भी अपने मन को नहीं लगाता है। वह न तो स्‍वार्थ–साधन में संलग्‍न होता है, न किसी का अपमान करता है और न अकर्मण्‍य होकर ही बैठता है। वह ध्‍यान रूप क्रिया में ही नित्‍य तत्‍पर रहता है, ध्‍याननिष्‍ठ हो ध्‍यान के द्वारा ही तत्त्‍व का निश्‍चय कर लेता है, ध्‍यान में समाधिस्‍थ होकर क्रमश: ध्‍यानरूप क्रिया का भी त्‍याग कर देता है। वह उस अवस्‍था में स्थित हुआ योगी निस्‍संदेह सर्वत्‍यागरूप निर्बीज समाधि से प्राप्‍त होने वाले दिव्‍य परमानंद का अनुभव करता है।

वह योगजनित अणिमा आदि सिद्धियों की भी इच्‍छा न रखकर सर्वथा निष्‍काम हो प्राणों का परित्‍याग कर देता है और विशुद्ध परब्रह्म परमात्‍मा के स्‍वरूप में प्रवेश कर जाता है। अथवा यदि वह परब्रह्म सायुज्‍य नहीं प्राप्‍त करना चाहता तो देवयानमार्ग पर स्थित हो ऊपर के लोकों में गमन करता है, अर्थात् परब्रह्म परमात्‍मा के परम धाम में चला जाता है। पुन: इस संसार में कही जन्‍म नहीं लेता। आत्‍मस्‍वरूप का बोध हो जाने से वह रजोगुण से रहित निर्मल शांतस्‍वरूप योगी अमृतस्‍वरूप विशुद्ध आत्‍मा को प्राप्‍त होता है।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शांतिपर्वके अंतर्गत मोक्षधर्मपर्व में जापक का उपाख्‍यानविषयक एक सौ छानबेवां अध्‍याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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