महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 177 श्लोक 45-54

सप्‍तसप्‍तत्‍यधिकशततम (177) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: सप्‍तसप्‍तत्‍यधिकशततम अध्याय: श्लोक 45-54 का हिन्दी अनुवाद

‘तू यह अच्छी तरह समझ ले कि मुझे वैराग्‍य, सुख, तृप्ति, शान्ति, सत्य, दम, क्षमा और समस्त प्राणियों के प्रति दयाभाव- ये सभी सद्गुण प्राप्‍त हो गये हैं। ‘अत: काम, लोभ, तृष्‍णा और कृपणता को चाहिये कि वे मोक्ष की ओर प्रस्थान करने वाले मुझ साधक को छोड़कर चले जायं। अब मैं सत्त्वगुण में स्थित हो गया हूँ। ‘इस समय काम और लोभ का त्याग करके मैं प्रत्यक्ष ही सुखी हो गया हूँ; अत: अजितेन्द्रिय पुरुष की भाँति अब लोभ में फंसकर दु:ख नहीं उठाऊंगा।

‘मनुष्‍य जिस–जिस कामना को छोड़ देता है, उस–उसकी ओर से सुखी हो जाता हैं। कामना के वशीभूत होकर तो वह सर्वदा दु:ख ही पाता है। ‘मनुष्‍य काम से सम्बन्ध रखने वाले जो कुछ भी रजोगुण हो, उसे दूर कर दे। दुख निर्लज्जता और असंतोष– ये काम और क्रोध से ही उत्पन्न होने वाले हैं। ‘जैसे ग्रीष्‍म–ॠतु में लोग शीतल जल वाले सरोवर में प्रवेश करते हैं, उसी प्रकार अब मैं परब्रह्म में प्रतिष्ठित हो गया हूं; अत: शान्त हूं, सब ओर से निर्वाण को प्राप्‍त हो गया हूँ।

अब मुझे केवल सुख–ही–सुख मिल रहा है। ‘इस लोक में जो विषयों का सुख है तथा परलोक में जो दिव्य एवं महान सुख है, ये दोनों प्रकार के सुख तृष्‍णा के क्षय से होने वाले सुख की सोलहवीं कला के भी बराबर नहीं हैं। ‘काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य और ममता-से देहधारियों के सात शत्रु हैं।

इनमें सातवां कामरूप शत्रु काम का नाश करके मैं अविनाशी ब्रह्मपुर में स्थित हो राजा के समान सुखी होऊगा। राजन्! इसी बुद्धि का आश्रय लेकर मक्ड़िधन और भोगों से विरक्‍त हो गये और समस्त कामनाओं का परित्याग करके उन्होंने परमानन्द स्वरूप परब्रह्म को प्राप्‍त कर लिया। बछड़ों के नाश को निमित्त बनाकर ही मक्ड़ि अमृतत्त्व को प्राप्‍त हो गये। उन्होंने काम की जड़ काट डाली, इसलिये महान् सुख प्राप्‍त कर लिया।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्व में मक्ड़िगीता विषयक एक सौ सतहरवां अध्‍याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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