महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 171 श्लोक 19-35

एकसप्‍तत्‍यधिकशतत (171) अध्याय: शान्ति पर्व (आपद्धर्म पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: एकसप्‍तत्‍यधिकशततम अध्याय: श्लोक 19-35 का हिन्दी अनुवाद

भारत! भोजन के पश्‍चात ब्राह्मणों के समक्ष बहुत-से सोने, चाँदी, मणि, मोति, बहुमूल्‍य हीरे, वैदूर्यमणि, रंकुमृग के चर्म तथा रत्‍नों के कई ढेर लगाकर महाबली विरूपाक्ष ने उन श्रेष्ठ ब्राह्मणों से कहा- ‘द्विजवरो! आप लोग अपनी इच्‍छा और उत्साह के अनुसार इन रत्‍नों को उठा ले जायं और जिनमें आप लोगों ने भोजन किया है, उन पात्रों को भी अपने घर लेते जायं’। उन महात्‍मा राक्षसराज के ऐसा कहने पर उन ब्राह्मणों ने इच्‍छानुसार उन सब रत्‍नों को ले लिया। तत्‍पश्‍चात उन सुदंर एवं महामूल्‍यवान रत्‍नों द्वारा पूजित हुए वे सभी उज्‍जवल वस्त्रधारी ब्राह्मण बड़े प्रसन्‍न हुए। राजन! इसके बाद राक्षसराज विरूपाक्ष ने नाना देशों से आये हुए राक्षसों को हिंसा करने से रोककर उन ब्राह्मणों से कहा- ‘विप्रगण! आज एक दिन के लिये आप लोगों को राक्षसों की ओर से कहीं कोई भय नहीं है; अत: आनन्‍द कीजिये और शीघ्र ही अपने अभीष्ट स्‍थान को चले जाइये। विलम्‍ब न कीजिये’। यह सुनकर सब ब्राह्मण समुदाय चारों ओर भाग चले। गौतम भी सुवर्ण का भारी भार लेकर बड़ी कठिनाई से ढोता हुआ जल्‍दी-जल्‍दी चलकर बरगद के पास आया। वहाँ पहुँचते ही थककर बैठ गया। वह भूख से पीड़ित और क्‍लांत हो रहा था।

राजन! तत्‍पश्‍चात प‍क्षियों में श्रेष्ठ मित्रवत्‍सल राजधर्मा गौतम के पास आया और स्‍वागतपूर्वक उसका अभिनन्‍दन किया। उस बुद्धिमान पक्षी ने अपने पंखों के अग्रभाग का संचालन करके उसे हवा की और उसकी सारी थकावट दूर कर दी; फिर उसका पूजन किया तथा उसके लिये भोजन की व्‍यवस्था की। भोजन करके विश्राम कर लेने पर गौतम इस प्रकार चिंता करने लगा- ‘अहो! मैंने लोभ और मोह से प्रेरित होकर सुंदर सुवर्ण का यह महान भार ले लिया है। अभी मुझे बहुत दूर जाना है। रास्‍तें में खाने के लिये कुछ भी नहीं है जिससे मेरे प्राणों की रक्षा हो सके। ‘अब मैं कौन-सा उपाय करके अपने प्राणों को धारण सकूँगा?’ इस प्रकार की चिंता में वह मग्‍न हो गया। पुरुष सिंह! तदनन्‍तर मार्ग में भोजन के लिये कुछ भी न देखकर उस कृतघ्‍न ने मन-ही-मन इस प्रकार विचार किया- ‘यह बगुलों का राजा राजधर्मा मेरे पास ही तो है। यह मांस का एक बहुत बड़ा ढेर है। इसी को मारकर ले लूँ और शीघ्रतापूर्वक यहाँ से चल दूं’।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत आपद्धर्मपर्व में कृतघ्‍न का उपाख्‍यान विषयक एक सौ इकहतरवां अध्‍याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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