महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 167 श्लोक 19-33

सप्तषष्‍टयधिकशततम (167) अध्याय: शान्ति पर्व (आपद्धर्म पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: सप्तषष्‍टयधिकशततम अध्याय: श्लोक 19-33 का हिन्दी अनुवाद

दूसरे बहुत-से आस्तिक-नास्तिक संयम नियम-परायण पुरुष हैं जो अर्थ के इच्छुक होते हैं। अर्थ की प्रधानता को न जानना तमोमय अज्ञान है। अर्थ की प्रधानता का ज्ञान प्रकाशमय है। धनवान वही है जो अपने भृत्यों को उत्‍तम भोग और शत्रुओं को दण्‍ड देकर उनको वश में रखता है। बुद्धिमानों में श्रेष्ठ महाराज! मुझे तो यही मत ठीक जंचता है। अब आप इन दोनों की बात सुनिये। इनकी वाणी कण्‍ठ तक आ गयी है, अर्थात ये दोनों भाई बोलने लिये उतावले हो रहे हैं।

वैशम्‍पायनजी कहते हैं- राजन! तदनन्तर धर्म और अर्थ के ज्ञान में कुशल माद्रीकुमार नकुल और सहदेव ने अपनी उत्‍तम बात इस प्रकार उपस्थित की। नकुल-सहदेव बोले- महाराज! मनुष्‍य को बैठते, सोते, घूमते-फिरते अथवा खडे़ होते समय भी छोटे-बडे़ हर तरह के उपायों से धन की आय को सुदृढ़ बनाना चाहिये। धन अत्यन्त प्रिय वस्तु है। इसकी प्राप्ति तथा सिद्धि हो जाने पर मनुष्‍य संसार में अपनी सम्पूर्ण कामनाएँ पूर्ण कर सकता है, इसका सभी को प्रत्यक्ष अनुभव है- इसमें संशय नहीं है। जो धन धर्म से युक्‍त हो और जो धर्म धन से सम्पन्न हो, वह निश्चित रूप से आपके लिये अमृत के समान होगा, यह हम दोनों का मत है। निर्धन मनुष्‍य की कामना पूर्ण नहीं होती और धर्महीन मनुष्‍य को धन भी कैसे मिल सकता है। जो पुरुष धर्मयुक्‍त अर्थ से वञ्चित है, उससे सब लोग उद्विग्न रहते हैं। इसलिये मनुष्‍य अपने मन को संयम में रखकर जीवन में धर्म को प्रधानता देते हुए पहले धर्माचारण करके ही फिर धन का साधन करे; क्योंकि धर्मपरायण पुरुष पर ही समस्त प्राणियों का विश्‍वास होता है और जब सभी प्राणी विश्‍वास करने लगते हैं तब मनुष्‍य का सारा काम स्वत: सिद्ध हो जाता है। अत: सबसे पहले धर्म का आचरण करे; फिर धर्मयुक्‍त धन का संग्रह करे। इसके बाद दोनों की अनुकूलता रखते हुए काम का सेवन करे। इस प्रकार त्रिवर्ग का संग्रह करने से मनुष्‍य सफल मनोरथ हो जाता है।

वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! इतना कहकर नकुल और सहदेव चुप हो गये। तब भीमसेन ने इस तरह कहना आरम्भ किया। भीमसेन बोले- धर्मराज! जिसके मन में कोई कामना नहीं है, उसे न तो धन कमाने की इच्छा होती है और न धर्म करने की ही। कामनाहीन पुरुष तो काम (भोग) भी नहीं चाहता है; इसलिये त्रिवर्ग में काम ही सबसे बढ़कर है। किसी-न-किसी कामना से संयुक्‍त होकर ही ऋषि-लोग तपस्या में मन लगाते हैं। फल, मूल और पत्ते चबाकर रहते हैं। वायु पीकर मन और इन्द्रियों का संयम करते हैं। कामना से ही लोग वेद और उपवेदों का स्वाध्‍याय करते तथा उसमें पारंग्त विद्वान हो जाते हैं। कामना से ही श्राद्धकर्म, यज्ञकर्म, दान और प्रतिग्रह में लोगों की प्रवृति होती है। व्यापारी, किसान, ग्वाले, कारीगर और शिल्‍पी तथा देव सम्बन्धी कार्य करने वाले लोग भी कामना से ही अपने-अपने कर्मों में लगे रहते हैं। कामना से युक्‍त हुए दूसरे मनुष्‍य समुद्र में भी घुस जाते हैं। कामना के विविध रूप हैं तथा सारा कार्य ही कामना से व्याप्त है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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