महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 166 श्लोक 59-80

षट्षष्‍टयधिकशततम (166) अध्याय: शान्ति पर्व (आपद्धर्म पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: षट्षष्‍टयधिकशततम अध्याय: श्लोक 59-80 का हिन्दी अनुवाद


दूसरे दानव तलवार की चोट से पीड़ित हो भाग खडे़ हुए और एक-दूसरे को डांट बताते हुए उन्होंने सम्पूर्ण दिशाओं की शरण ली। कितने ही धरती में घुस गये, बहुत–से पर्वतों में छिप गये, कुछ आकाश में उड़ चले और दूसरे ब‍हुत–से दानव पानी में समा गये। वह अत्यन्त दारुण महान युद्ध आरम्भ होने पर पृथ्‍वी पर रक्‍त और मांस की कीच जम गयी। जिससे वह अत्‍यंत भयंकर प्रतीत होने लगी।

महाबहो! खून से लथपथ होकर गिरी हुई दानवों की लाशों से ढकी हुई यह भूमि पलाश के फूलों से युक्‍त पर्वत–शिखरों द्वारा आच्छादित–सी जान पड़ती थी। दानवों का वध करके जगत् में धर्म की प्रधानता स्थापित करने के पश्‍चात् भगवान रुद्रदेव ने उस रौद्ररूप को त्याग दिया। फिर वे कल्‍याणकारी शिव अपने मड़ग्‍लमय रूप से सुशोभित होने लगे। तत्पश्‍चात सम्पूर्ण महर्षियों और देवताओं ने उस अदभूत विजय से संतुष्‍ट हो देवाधिदेव महादेव की पुजा की। तदनन्तर भगवान रुद्र ने दानवों के खून से रंगे हुए उस धर्मरक्षक खड्ग को बड़े सत्कार के साथ भगवान विष्‍णु के हाथ में दे दिया। भगवान विष्‍णु ने मरीचिको, मरीचिने महर्षियों को और महर्षियों ने इन्द्र को वह खड्ग प्रदान किया। बेटा! फिर महेन्द्र ने लोकपालों को और लोकपालों ने सूर्य–पुत्र मनु को वह विशाल खडग दे दिया। तलवार देकर उन्होंने मनु से कहा-‘तुम मनुष्‍यों के शासक हो; अत: इस धर्मगर्भित खडग से प्रजा का पालन करो। ‘जो लोग स्थूल शरीर और सूक्ष्‍म शरीर को सुख देने के लिये धर्म की मर्यादा का उल्लघंन करें, उन्हें न्यायपूर्वक पृथक-पृ‍थक दण्‍ड देना। धर्मपूर्वक समस्त प्रजा की रक्षा करना, किसी के प्रति स्वेच्छाचार न करना। कटुवचन से अपराधी का दमन करना ‘वाग्दण्‍ड’ कहलाता है। जिसमें अपराधी से बहुत सा सुवर्ण वसूल किया जाय, वह ‘अर्थदण्‍ड’ कहलाता है।

शरीर के किसी अग्विशेष का छेदन करना ‘कार्य–दण्‍ड’ कहा गया है। किसी महान् अपराध के कारण अपराधी का जो वध किया जाता है, वह ‘’प्राणदण्‍ड’’ के रूप में प्रसिद्ध है। ये चारों दण्‍ड तलवार के दुर्निवार या दुर्धर्ष रूप हैं। यह बात समस्त प्रजा को बता देनी चाहिये। ‘जब प्रजा के द्वारा धर्म का उल्लङघ्‍न हो जाय तो खड्ग के द्वारा प्रमाणित (साधित) होने वाले इन दण्‍डों का यथायोग्‍य प्रयोग करके धर्म की रक्षा करनी चाहिये।’ ऐसा कहकर लोकपालों ने अपने पुत्र प्रजापालक मनु को विदा कर दिया। तत्पश्‍चात् मनु ने प्रजा की रक्षा के लिये वह खड्ग क्षुप को दे दिया। क्षुप से इक्ष्‍वाकु और इक्ष्‍वाकु से पुरूरवा ने उस तलवार को ग्रहण किया। पुरूवार से आयु ने, आयु से नहुष ने, नहुष ने ययाति ने और ययाति से पूरू ने इस भूतल पर वह खड्ग प्राप्‍त किया। पुरू से अमूर्तरया, अमूर्तरया से राजा भूतिशय ने और भूमिशय से दुष्‍यन्त कुमार भरत ने उस खड्ग को ग्रहण किया। राजन्! उनसे धर्मज्ञ ऐलविल ने वह तलवार प्राप्‍त की। ऐलविल से वह महाराज धुन्धुमार को मिली। धुन्धुमार से काम्बोज ने, काम्बोज से मुचुकुन्द ने, मुचुकुन्द से मरुत ने, मरुत से रैवत ने, रैवत से यूवनाश्‍व ने, युवनाश्‍व से इक्ष्‍वाकुवंशी रघु ने, रघु से प्रतापी हरिणाश्‍व ने, हरिणाशव से शुनक ने, शुनक से धर्मात्मा उशीनर ने, उशीनर से युदवंशी भोज ने, यदुवंशियों से शिबि ने, शिबि से प्रतर्दन ने, प्रतर्दन से अष्‍टक ने तथा अष्‍टक से पृषदश्व ने व‍ह तलवार प्राप्‍त की।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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