महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 166 श्लोक 42-58

षट्षष्‍टयधिकशततम (166) अध्याय: शान्ति पर्व (आपद्धर्म पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: षट्षष्‍टयधिकशततम अध्याय: श्लोक 42-58 का हिन्दी अनुवाद


सभी प्राणी भय के मारे बारंबार व्यथित हो उठते थे। उस भयानक भूत को उपस्थित हुआ देख पितामह ब्रह्मा ने महर्षियों, देवताओं तथा गन्‍धर्वों से कहा-‘मैंने ही इस भूत का चिन्तन किया था। यह असि नामधारी प्रबल आयुध है। इसे मैंने सम्पूर्ण जगत की रक्षा तथा देवद्रोही असुरों के वध के लिये प्रकट किया है। तत्पश्‍चात वह भूत उस रूप को त्यागकर तीस अड़गुल से कुछ बड़े खडग के रूप में प्रकाशित होने लगा। उसकी धार बडी़ तीखी थी। वह चमचमाता हुआ खडग काल और अन्तक के समान उद्यत प्रतीत होता था।

इसके बाद ब्रह्माजी ने अधर्म का निवारण करने में समर्थ वह तीखी तलवार वृषभचिहिृत ध्‍वजा वाले नीलकण्‍ठ भगवान रुद्र को दे दी। उस समय महर्षिगण रुद्रदेव की भूरि–भूरि प्रंशसा करने लगे। तब अप्रमेयस्वरूप भगवान रुद्र ने वह तलवार लेकर एक–दूसरा चतुर्भुज रूप धारण किया जो भूतल पर खडा़ होकर भी अपने मस्तक से सूर्यदेव का स्पर्श कर रहा था। उसकी दृष्टि ऊपर की ओर थी, वह महान् चिहृ धारण किये हुए था। मुख से आग की लपटें छोड़ रहा था और अपने अङोग्‍ से नील, श्‍वेत तथा लोहित (लाल) अनेक प्रकार के रंग प्रकट कर रहा था। उसने काले मृगचर्म को वस्त्र के रुप धारण कर रक्खा था, जिसमें सुवर्णनिर्मित तारे जडे़ हुए थे। वह अपने ललाट में सूर्य के समान एक तेजस्वी नेत्र धारण करता था। उस‍के सिवा काले और पिड़ग्‍लवर्ण के दो अत्यन्त निर्मल नेत्र और शोभा पा रहें थे। तदनन्तर भगदेवता के नेत्रों का नाश करने वाले महान बल और पराक्रम से सम्पन्न शूलपाणि भगवान महादेव काल और अग्नि के तुल्‍य तेजस्‍वी खडग को तथा बिजली सहित मेघ के समान चम‍कीली तीन कोनों वाली ढाल को हाथ में लेकर भाँति–भाँति के मार्गों से विचरने लगे; और युद्ध करने की इच्‍छा से वह तलवार आकाश में घुमाने लगे। भरतनन्दन! उस समय जोर–जोर से गर्जते और महान अट्टास करते हुए रुद्रदेव का स्वरूप बडा़ भंयकर प्रतीत होता था। भयानक कर्म करने की इच्‍छा से वैसा ही रूप धारण करने वाले रुद्रदेव को देखकर समस्त दानव हर्ष और उत्साह में भरकर उनके ऊपर टूट पड़े।

कुछ लोग पत्थर बरसाने लगे, कुछ जलते लुआठे चलाने लगे, दूसरे भंयकर अस्त्र-शस्त्रों से काम लेने लगे और कितने ही लोह निर्मित छुरों ही तीखी धारों से चोट करने लगे। तत्पश्‍चात दानवदल ने देखा कि देवसेनापति का कार्य संभालने वाले उत्कट बलशाली रुद्रदेव युद्ध से पीछे नहीं हट रहें हैं, तब वे मोहित और विचलित हो उठे। शीघ्रतापूर्वक पैर उठाने के कारण विचित्र गति से विचरण करने वाले एकमात्र खड्गधारी रुद्रदेव को वे सब असुर सहस्रों के समान समझने लगे। जैसे सुखी लकड़ी और घास–फूंस में लगा हुआ दावानल वन के समस्त वृक्षों को जला देता है, उसी प्रकार भगवान रुद्र शत्रुसमुदाय में दैत्यों को मारते–काटते, चीरते–फाड़ते, घायल करते, छेदते तथा विदीर्ण और धराशायी करते हुए विचरने लगे। तलवार के वेग से उन सब में भगदड़ मच गयी। कितनों की भुजाएं और जांघे कट गयीं। बहुतों के वक्ष:स्थल वि‍दीर्ण हो गये और कितनों के शरीरों से आंतें बाहर निकल आयीं। इस प्रकार वे महाबली दैत्य मरकर पृथ्‍वी पर गिर पड़े।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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