पंचषष्टयधिकशततम (165) अध्याय: शान्ति पर्व (आपद्धर्म पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: पंचषष्टयधिकशततम अध्याय: श्लोक 30-44 का हिन्दी अनुवाद
राजन! परिहास में, स्त्री के पास, विवाह के अवसर पर, गुरु के हित के लिये अथवा अपने प्राण बचाने के उद्देश्य से बोला गया असत्य हानिकारक नहीं होता। इन पाँच अवसरों पर असत्य बोलना पाप नहीं बताया गया है। नीच वर्ण के पुरुष के पास भी उत्तम विद्या हो तो उसे श्रद्धापूर्वक ग्रहण करना चाहिये और सोना अपवित्र स्थान में भी पड़ा हो तो उसे बिना हिचकिचाहट के उठा लेना चाहिये। नीच कुल से भी उत्तम स्त्री को ग्रहण कर ले, विष के स्थान से भी अमृत मिले तो उसे पी ले; क्योकि स्त्रियाँ, रत्न और जल- ये धर्मत: दूषणीय नहीं होते हैं। गौ और ब्राह्मणों का हित, वर्ण संकरता का निवारण तथा अपनी रक्षा करने के लिये वैश्य भी हथियार उठा सकता है। मदिरापन, ब्रह्महत्या तथा गुरुपत्नीगमन- इन महापापों से छूटने के लिये कोई प्रायश्चित नहीं बताया गया है। किसी भी उपाय से अपने प्राणों का अंत कर देना ही उन पापों का प्रायश्चित होगा, ऐसी विद्वानों की धारणा है। सुवर्ण की चोरी, अन्य वस्तुओं की चोरी तथा ब्राह्मण का धन छीन लेना-यह महान पाप है। महाराज! मदिरापान और अगम्या स्त्री के साथ गमन करने से, पतितों के साथ सम्पर्क रखने से तथा ब्राह्मणेतर होकर ब्राह्मणी के साथ समागम करने से स्वेच्छाचारी पुरुष शीघ्र ही पतित हो जाता हे। पतित के साथ रहने से, उसका यज्ञ कराने से और उसे पढा़नें से मनुष्य एक वर्ष में पतित हो जाता है; परंतु उसकी संतान के साथ अपनी संतान का विवाह करने से, एक सवारी या एक आसान पर बैठने से तथा उसके साथ में भोजन करने से वह एक वर्ष में नहीं, किंतु तत्काल पतित हो जाता है। भरतनन्दन! उपर्युक्त पाप अनिर्देश्य (प्रायश्चितरहित) कहे गये हैं। इन्हें छोड़कर और जितने पाप हैं, वे निर्देश्य हैं- शास्त्र में उनका प्रायश्चित बताया गया है। उसके अनुसार प्रायश्चित करके पाप का व्यसन छोड़ देना चाहिये। पूर्वोक्त (शराबी, ब्रह्महत्यारा और गुरुपत्नीगामी) तीन पापियों के मरने पर उनकी दाहादिय क्रिया किये बिना ही कुटुम्बीजनों को उनके अन्न और धन पर अधिकार कर लेना चाहिये। इसमें कुछ अन्यथा विचार करने की आवश्यकता नहीं है। धार्मिक राजा अपने मन्त्री और गुरुजनों को भी पतित हो जाने पर धर्मानुसार त्याग दे और जब तक ये अपने पापों का प्रायश्चित न कर लें, तब तक इनके साथ बातचीत न करे। पापाचारी मनुष्य यदि धर्माचरण और तपस्या करे तो अपने पाप को नष्ट कर देता है। चोर को ‘यह चोर है’ ऐसा कह देने मात्र से चोर के बराबर पाप का भागी होना पड़ता है। जो चोर नहीं है, उसको चोर कह देने से मनुष्य को चोर से दूना पाप लगता है। कुमारी कन्या यदि अपनी इच्छा से चरित्रभ्रष्ट हो जाय तो उसे ब्रह्महत्या का तीन चौथाई पाप भोगना पड़ता है। और जो उसे कलंकित करने वाला पुरुष है, वह शेष एक चौथाई पाप का भागी होता है। इस जगत में ब्राह्मणों को गाली देकर या उन्हें तिरस्कारपूर्वक धक्के देकर हटाने से मनुष्य को बडा़ भारी पाप लगता है। सौ वर्षों तक तो उसे प्रेत की भाँति भटकना पड़ता है, कहीं भी ठहरने के लिये ठौर नहीं मिलता। फिर एक हजार वर्षों तक उसे नरक में गिरकर रहना पड़ता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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