द्विपञ्चाशदधिकशततम (152) अध्याय: शान्ति पर्व (आपद्धर्म पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: द्विपञ्चाशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 30-39 का हिन्दी अनुवाद
राजन! एक समय सब देवताओं और असुरों ने बड़े आदर के साथ देवगुरु बृहस्पति के निकट जाकर पूछा- ‘महर्षे! आप धर्म का फल जानते हैं। इसी प्रकार परलोक में जो पापों के फलस्वरूप नरक का कष्ट भोगना पड़ता है, वह भी आप से अज्ञात नहीं है, परंतु जिस योगी के लिये सुख और दु:ख दोनों समान हैं, वह उन दोनों के कारण रूप पुण्य और पाप को जीत लेता है या नहीं। महर्षे! आप हमारे समक्ष पुण्य के फल का वर्णन करें और यह भी बतावें कि धर्मात्मा पुरुष अपने पापों का नाश कैसे करता है?’ बृहस्पति जी ने कहा- यदि मनुष्य पहले बिना जाने पाप करके फिर जान-बूझकर पुण्यकर्मों का अनुष्ठान करता है तो वह सत्कर्मपरायण पुरुष अपने पाप को उसी प्रकार दूर कर देता है, जैसे क्षार (सोड़ा, साबून आदि) लगाने से कपड़े का मैल छूट जाता है। मनुष्य को चाहिये कि वह पाप करके अहंकार न प्रकट करे- हेकड़ी न दिखाये, अपितु श्रदापूर्वक दोषदृष्टि का परित्याग करके कल्याणमय धर्म के अनुष्ठान की इच्छा करे। जो मनुष्य श्रेष्ठ पुरुषों के खुले हुए छिद्रों को ढकता है अर्थात उनके प्रकट हुए दोषों को भी छिपाने की चेष्टा करता है तथा जो पाप करके उससे विरत हो कल्याणमय कर्म में लग जाता है, वे दोनों ही पापरहित हो जाते हैं। जैसे सूर्य प्रात:काल उदित होकर सारे अन्धकार को नष्ट कर देता है उसी प्रकार शुभकर्म का आचरण करने वाला पुरुष अपने सभी पापों का अन्त कर देता है। भीष्म जी कहते हैं- राजन! ऐसा कहकर शौनक इन्द्रोत ने राजा जनमेजय से विधिपूर्वक अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान कराया। इससे राजा जनमेजय का सारा पाप नष्ट हो गया और वे प्रज्वलित अग्नि के समान देदीप्यमान होने लगे। उन्हें सब प्रकार के श्रेय प्राप्त करता है, उसी प्रकार शत्रुसूदन जनमेजय पुन: अपने राज्य में प्रवेश किया। इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत आपद्धर्मपर्व में इन्द्रोत और पारिक्षित का संवादविषयक एक सौ बावनवां अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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