महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 141 श्लोक 52-67

एकचत्‍वारिंशदधिकशततम (141) अध्याय: शान्ति पर्व (आपद्धर्म पर्व)

Prev.png

महाभारत: शान्ति पर्व: एकचत्‍वारिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 52-67 का हिन्दी अनुवाद

‘मेरे प्राण शिथिल हो रहे हैं। क्षुधा से मेरी श्रवणशक्ति नष्ट होती जा रही है। मैं दुबला हो गया हूँ। मेरी चेतना लुप्‍त-सी हो रही है; अत: अब मुझमें भक्ष्‍य और अभक्ष्‍य का विचार नहीं रह गया है। ‘मैं जानता हूँ कि यह अधर्म है तो भी यह कुत्‍ते की जाँघ ले जाऊँगा। मैं तुम लोगों के घरों पर घूम-घूमकर माँगने पर भी जब भीख नहीं पा सका हूँ, तब मैंने यह पाप कर्म करने का विचार किया है; अत: कुत्‍ते की जाँघ ले जाऊँगा। ‘अग्निदेव देवताओं के मुख हैं, पुरोहित हैं, पवित्र द्रव्‍य ही ग्रहण करते हैं और महान प्रभावशाली हैं तथापि वे जैसे अवस्‍था के अनुसार सर्वभक्षी हो गये हैं, उसी प्रकार मैं ब्राह्मण होकर भी सर्वभक्षी बनूँगा; अत: तुम धर्मत: मुझें ब्राह्मण ही समझों’।

तब चाण्‍डाल ने उनसे कहा- ‘महर्षे! मेरी बात सुनिये और उसे सुनकर ऐसा काम कीजिये, जिससे आपका धर्म नष्ट न हो। ‘ब्रह्मर्षे! मैं आपके लिये भी जो धर्म की ही बात बता रहा हूँ, उसे सुनिये। मनीषी पुरुष कहते हैं कि कुत्‍ता सियार से भी अधम होता है। कुत्‍ते के शरीर में भी उसकी जाँघ का भाग सबसे अधम होता है। ‘महर्षे! आपने जो निश्‍चय किया है, यह ठीक नहीं है, चाण्‍डाल के धन का, उसमें भी विशेष रूप से अभक्ष्‍य पदार्थ का अपहरण धर्म की दृष्टि से अत्‍यंत निन्दित है। ‘महामुने! अपने प्राणों की रक्षा के लिये कोई दूसरा अच्‍छा - सा उपाय सोचिये। मांस के लोभ से आप की तपस्या का नाश नहीं होना चाहिये। ‘आप शास्त्रविहित धर्म को जानते हैं, अत: आपके द्वारा धर्मसंकरता का प्रचार नहीं होना चाहिये। धर्म का त्‍याग न कीजिये; क्‍योंकि आप धर्मात्‍माओं में श्रेष्ठ समझे जाते हैं।

भरतश्रेष्ठ! नरेश्‍वर! चाण्‍डाल के ऐसा कहने पर क्षुधा से पीड़ित हुए महामुनि विश्वामित्र ने उसे इस प्रकार उतर दिया- ‘मैं भोजन न मिलने के कारण उसकी प्राप्ति के लिये इधर-उधर दौड़ रहा हूँ। इसी प्रयत्‍न में एक लंबा समय व्‍यतीत हो गया, किंतु मरे प्राणों की रक्षा के लिये अब तक कोई उपाय हाथ नहीं आया। ‘जो भूखों मर रहा हो, वह जिस-जिस उपाय से अथवा जिस किसी भी कर्म से सम्‍भव हो, अपने जीवन की रक्षा करें, फिर समर्थ होने पर वह धर्म का आचरण कर सकता है।

इन्‍द्र देवता का जो पालन रूप धर्म है, वही क्षत्रियों का भी है और अग्निदेव का जो सर्वभक्षित्‍व नामक गुण है, वह ब्राह्मणों का है। मेरा बल वेदरूपी अग्नि है; अत: मैं क्षुधा की शान्ति के लिये सब कुछ भक्षण करूँगा। ‘जैसे-जैसे ही जीवन सुरक्षित रहे, उसे बिना अवहेलना करना चाहिये। मरने से जीवित रहना श्रेष्ठ है, क्‍योंकि जीवित पुरुष पुन: धर्म का अचारण कर सकता है। ‘इसलिये मैंने जीवन की आकांक्षा रखकर इस अभक्ष्‍य पदार्थ का भी भक्षण कर लेने का बुद्धिपूर्वक निश्‍चय किया है। इसका तुम अनुमोदन करो। ‘जैसे सूर्य आदि ज्‍योतिर्मय ग्रह महान अंधकार का नाश कर देते हैं, उसी प्रकार मैं पुन: तप और विद्या द्वारा जब अपने-आपको सबल कर लूँगा, तब सारे अशुभ कर्मों का नाश कर डालूँगा’।


Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः