महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 138 श्लोक 152-164

अष्टात्रिंशदधिकशततम (138) अध्याय: शान्ति पर्व (आपद्धर्म पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: अष्टात्रिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 152-164 का हिन्दी अनुवाद

‘यह जीव-जगत स्‍वार्थ का ही साथी है। कोई किसी का प्रिय नहीं है। दो सगे भाईयों तथा पति और पत्नी में भी जो परस्‍पर प्रेम होता है, वह भी स्‍वार्थवश ही है। इस जगत में किसी के भी प्रेम को मैं निष्‍कारण ( स्‍वार्थरहित) नहीं समझता। ‘कभी-कभी किसी स्‍वार्थ को लेकर भाई भी कुपित हो जाते हैं अथवा पत्नी भी रूठ जाती है। यद्यपि वे स्‍वभावत: एक-दूसरे से जैसा प्रेम करते हैं, ऐसा प्रेम दूसरे लोग नहीं करते हैं। ‘कोई दान देने से प्रिय होता है, कोई प्रिय वचन बोलने से प्रीतिपात्र बनता है और कोई कार्य सिद्धि के लिये मन्‍त्र, होम एवं जप करने से प्रेम का भाजन बन जाता है। ‘किसी कारण (स्‍वार्थ ) को लेकर उत्‍पन्‍न होने वाली प्रीति जब तक वह कारण रहता है, तब तक बनी रहती है। उस कारण का स्‍थान नष्ट हो जाने पर उसको लेकर की हुई प्रीति भी स्‍वत: निवृत हो जाती है।

‘अब मेरे शरीर को खा जाने के सिवा दूसरा कौन-सा ऐसा कारण रह गया है, जिससे मैं यह मान लूँ कि वास्‍तव में तुम्‍हारा मुझ पर प्रेम है। इस समय जो तुम्‍हारा स्‍वार्थ है, उसे मैं अच्‍छी तरह समझता हूँ। ‘समय कारण के स्‍वरूप को बदल देता है; और स्‍वार्थ उस समय का अनुसरण करता रहता है। विद्वान पुरुष उस स्‍वार्थ को समझता है और साधारण लोग विद्वान पुरुष के ही पीछे चलते हैं। तात्‍पर्य यह है कि मैं विद्वान हूँ; इसलिये तुम्‍हारे स्‍वार्थ को अच्‍छी तरह समझता हूँ अत: तुम्‍हें मुझसे ऐसी बात नहीं कहनी चाहिये। ‘तुम शक्‍तिशाली हो तो भी जो बेसमय मुझ पर इतना स्‍नेह दिखा रहे हो, इसका यह स्‍वार्थ ही कारण है; अत; मैं भी अपने स्‍वार्थ से विचलित नहीं हो सकता। संधि और विग्रह के विषय में मेरा विचार सुनिश्चित है। ‘मित्रता और शत्रुता के रूप तो बादलों के समान क्षण-क्षण में बदलते रहते हैं।

आज ही तुम मेरे शत्रु होकर फिर आज ही मेरे मित्र हो सकते हो और उसके बाद आज ही पुन: शत्रु भी बन सकते हो। देखो, यह स्‍वार्थ का सम्‍बन्‍ध कितना चंचल है? ‘पहले जब उपयुक्‍त कारण था, तब हम दोनों में मैत्री हो गयी थी, किंतु काल ने जिसे उपस्थित कर दिया था उस कारण के निवृत होने के साथ ही वह मैत्री भी चली गयी। ‘तुम जाति से ही मेरे शत्रु हो, किंतु विशेष प्रयोजन से मित्र बन गये थे। वह प्रयोजन सिद्ध कर लेने के पश्‍चात तुम्‍हारी प्रकृति फिर सहज शत्रुभाव को प्राप्‍त हो गयी। ‘मैं इस प्रकार शुक्र आदि आचार्यों के बनाये हुए नीतिशास्त्र की बातों को ठीक-ठीक जानकर भी तुम्‍हारे लिये उस जाल के भीतर कैसे प्रवेश कर सकता था? यह तुम्‍हीं मुझे बताओ। ‘तुम्‍हारे पराक्रम से मैं प्राण-संकट से मुक्‍त हुआ और मेरी शक्ति से तुम। जब एक दूसरे पर अनुग्रह करने का काम पूरा हो गया, तब फिर हमें परस्‍पर मिलने की आवश्‍यकता नहीं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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