महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 138 श्लोक 137-151

अष्टात्रिंशदधिकशततम (138) अध्याय: शान्ति पर्व (आपद्धर्म पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: अष्टात्रिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 137-151 का हिन्दी अनुवाद

‘मित्रों को जानना चाहिये, शत्रुओं को भी अच्‍छी तरह समझ लेना चाहिये- इस जगत में मित्र और शत्रु की यह पहचान अत्‍यन्‍त सूक्ष्‍म तथा विज्ञजनों को अभिमत है। ‘अवसर आने पर कितने ही मित्र शत्रु रूप हो जाते हैं और कितने ही शत्रु मित्र बन जाते हैं। परस्‍पर संधि कर लेने के पश्‍चात जब वे काम और क्रोध के अधीन हो जाते हैं, तब यह समझना असम्‍भव हो जाता है कि वे मित्र भाव से युक्‍त हैं या शत्रु भाव से? ‘न कभी कोई शत्रु होता है और न मित्र होता है। आवश्‍यक शक्ति के सम्‍बन्‍ध से लोग एक दूसरे के मित्र और शत्रु हुआ करते हैं। ‘जो जिसके जीते-जी अपना स्‍वार्थ सधता देखता है और जिसके मर जाने पर अपनी हानि मानता है, वह तब तक उसका मित्र बना रहता है, जब तक कि इस स्थिति में कोई उलट-फेर नहीं होता। ‘मैत्री कोई स्थिर वस्‍तु नहीं है और शत्रुता की सदा स्थित रहने वाली चीज नहीं है। स्‍वार्थ के सम्‍बन्‍ध से मित्र और शत्रु होते रहते हैं। ‘कभी-कभी समय के फेर से मित्र शत्रु बन जाता है और शत्रु भी मित्र बन जाता है; क्‍योंकि स्‍वार्थ बडा़ बलवान होता है। ‘जो मनुष्‍य स्‍वार्थ के सम्‍बन्‍ध का विचार किये बिना ही मित्रों पर केवल विश्‍वास और शत्रुओं पर केवल अविश्‍वास करता जाता है तथा जो शत्रु हो या मित्र, जो सबके प्रति प्रेमभाव ही स्‍थापित करने लगता है, उसकी बुद्धि भी चंचल ही समझनी चाहिये। ‘जो विश्‍वासपात्र न हो, उस पर कभी विश्‍वास न करे और जो विश्‍वासपात्र हो, उस पर भी अधिक विश्‍वास न करे; क्‍योंकि विश्‍वास उत्‍पन्‍न हुआ भय मनुष्‍य का मुलोच्‍छेद कर डालता है। ‘माता-पिता, पुत्र, मामा, भांजे, सम्‍बन्‍धी तथा बन्‍धु-बान्‍धव-इन सब में स्‍वार्थ के सम्‍बन्‍ध से ही स्‍नेह होता है। ‘अपना प्‍यारा पुत्र भी यदि पति‍त हो जाता है तो मां-बाप उसे त्‍याग देते हैं और सब लोग सदा अपनी ही रक्षा करना चाहते हैं। अत: देख लो, इस जगत में स्‍वार्थ ही सार है’।

‘बुद्धिमान लोमश! जो तुम आज जाल के बन्‍धन से छूटने के बाद ही कृतज्ञतावश मुझ अपने शत्रु को सुख पहुँचाने का असंदिग्‍ध उपाय ढूँढने लगे हो, इसका क्‍या कारण है? जहाँ तक उपकार का बदला चुकाने का प्रश्‍न है, वहाँ तक तो हमारी-तुम्‍हारी समान स्थिति है। यदि मैंने तुम्‍हें सकंट से छुडा़या है, तो तुमने भी तो मुझे वैसी ही विपत्ति से बचाया है; फिर मैं तो कुछ करता नहीं, तुम्‍हीं क्‍यों उपकार का बदला देने के लिये उतावले हो उठे हो? ‘तुम इसी स्‍थान पर बरगद से उतरे थे और पहले से ही यहाँ जाल बिछा हुआ था; परंतु तुमने चपलता के कारण उधर ध्‍यान नहीं दिया और फ़ँस गये। ‘चपल प्राणी जब अपने ही लिये कल्‍याणकारी नहीं होता तो वह दूसरे की भलाई क्‍या करेगा? अत: यह निश्चित है कि चपल पुरुष सब काम चौपट कर देता है। ‘इसके सिवा तुम जो यह मीठी-मीठी बात कह रहे हो कि ‘आज तुम मुझे बड़े प्रिय लगते हो’ इसका भी कारण है, मेरे मित्र; वह सब मैं विस्‍तार के साथ बताता हूँ, सुनो मनुष्‍य कारण से ही प्रेमपात्र और कारण से ही द्वेष का पात्र बनता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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