द्वाविंशशत्यधिकशततम(122) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: द्वाविंशशत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 43-56 का हिन्दी अनुवाद
इस बात को तुम अच्छी तरह समझ लो। तदनन्तर ब्राह्मणों से दण्ड धारण का अधिकार पाकर क्षत्रिय धर्मानुसार सम्पूर्ण लोकों की रक्षा करते हैं। क्षत्रियों से ही यह सनातन चराचर जगत् सुरक्षित होता रहा है। इस लोक में प्रजा जागती हैं और प्रजाओं में दण्ड जागता है। वह ब्रह्मजी के समान तेजस्वी दण्ड सबको मर्यादा के भीतर रखता है। भारत! यह काल रुप दण्ड सृष्टि के आदि में, मध्य में और अन्त में भी जागता रहता है। यह सर्व-लोकेश्वर महादेव का स्वरुप है। यही समस्त प्रजाओं का पालक है। इस दण्ड के रुप में देवाधिदेव कल्याणस्वरुप सर्वात्मा प्रभु जटाजूटधारी उमावल्लभ दु:खहारी स्थाणु-स्वरुप एवं लोक-मंगलकारी भगवान् शिव ही सदा जाग्रत रहते हैं। इस तरह यह दण्ड आदि, मध्य और अन्त में विख्यात है। धर्मज्ञ राजा को चाहिये कि इसके द्वारा न्यायोचित बर्ताव करे। भीष्म जी कहते हैं- युधिष्ठिर! जो नरेश इस प्रकार बताये हुए वसुहोम के इस मत को सुनता और सुनकर यथोचित बर्ताव करता है, वह सम्पूर्ण कामनाओं को प्राप्त कर लेता है। नरश्रेष्ठ! जो दण्ड सम्पूर्ण धार्मिक जगत को नियम के भीतर रखने वाला है, उसके सम्बन्ध में जितनी बातें हैं, उन्हें मैंने तुम्हें बता दी। इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तगर्त राजधर्मानुशासन पर्व में दण्ड की उत्पति की कथा विषयक एक सौ बाईसवां अध्याय पुरा हुआ।
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज